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Home Opinion

मुझे माफ करना रमेश उपाध्याय, मैं आपकी हत्या का मूकदर्शक बना रहा!

NRI Affairs News Desk by NRI Affairs News Desk
August 5, 2021
in Opinion
Reading Time: 2 mins read
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उपाध्याय
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सब मरते हैं, बुद्ध ने चुनौती दी थी कि कोई ऐसा घर दिखाओ जहां मौत न हुई हो. इस चुनौती को किसी ने आज तक स्वीकार नहीं किया है. लेकिन रमेश उपाध्याय अपनी मौत नहीं मरे हैं. उनकी हत्या हुई है.

डॉ. रमेश उपाध्याय, महानतम जनवादी लेखकों में से एक, विचारक, हरदिल-अज़ीज उस्ताद, संपादक, जनसंघर्षों में पहली पंक्ति में शामिल होने वाले बुद्धिजीवी, सुधा उपाध्याय के 52 साल से हमसफ़र, प्रज्ञा, संज्ञा, अंकित के वालिद-दोस्त और राकेश कुमार के ससुर-दोस्त का 23-24 अप्रैल को रात लगभग 1.30 बजे देहांत हो गया.

सब मरते हैं, बुद्ध ने चुनौती दी थी कि कोई ऐसा घर दिखाओ जहां मौत न हुई हो. इस चुनौती को किसी ने आज तक स्वीकार नहीं किया है. लेकिन रमेश उपाध्याय अपनी मौत नहीं मरे हैं. उनकी हत्या हुई है. यह मैं बहुत ज़िम्मेदारी के साथ कह रहा हूं. उनके पूरे परिवार ने 3 अप्रैल से 5 अप्रैल के बीच टीके लगवाए थे. लगभग 10 दिनों बाद जब कोविड होने के लक्षण ज़ाहिर हुए तो कोविड टेस्ट कराने का संघर्ष शुरू हुआ,  चार दिन बाद ये हो सके, तीन दिन बाद पॉज़िटिव रिपोर्ट आईं और फिर एक और लम्बी जद्दोजहद किसी अस्पताल में बिस्तरों की तलाश की शुरू हुई.

दिल्ली NCR छान मारा, ज़िम्मेदार लोगों (जिनसे संपर्क हो सका, ज़्यादातर के फ़ोन तो 24 घंटे बजते ही रहते थे) के सामने गिड़गिड़ाए. मजबूर किया करते, सबने घर में ही खुद को अलग-थलग कर लिया. जैसे-तैसे करके चारों के लिए तीसरी मंज़िल पर ऑक्सीजन के सिलेंडरों का इंतज़ाम राकेश और प्रज्ञा ने किया. कौन किसकी तीमारदारी करेगा कोई नहीं जानता था, उनकी बड़ी बिटिया प्रज्ञा और उनके पति राकेश ने बाहर रहकर वह सबकुछ किया जो इंसान कर सकता था (क़िस्म-क़िस्म के ऊपर वाले तो कब से गहरी ऐसी नींद में मगन थे जिससे कुम्भकरण भी शर्मिंदा हो जाए.)

जब हालात बिगड़ने लगे तो कम से कम 2 बिस्तर, किसी अस्पताल में रमेश भाई और सुधाजी के लिए तो तत्काल चाहिए थे. इस बीच दोनों बच्चों की हालत भी बिगड़ने लगी थी. ज़मीन आसमान छानने के बाद राकेश की एक हमदर्द परिचित ने 21 अप्रैल को चारों का ESI अस्पताल ओखला कोविड वॉर्ड में दाखलों का इंतज़ाम करा दिया. जब चारों सरकारी एम्बुलेंस में वहां पहुंचे तो बताया गया की सिर्फ़ रमेश भाई और सुधाजी को ही बुज़ुर्ग होने की वजह से बिस्तर मिलेंगे. और यह भी बताया गया कि अंदर किसी भी तरह की नर्सिंग सुविधा उपलब्ध नहीं होगी.

‘मैं मर गया तो जिम्मेदार ऑस्ट्रेलिया सरकार होगी’

एक हमदर्द डॉक्टर ने इस बात की इजाज़त दे दी कि सुधाजी की जगह कोविड की शिकार बिटिया को दाख़िल कर दीजिये, जो रमेश जी की तीमारदारी भी कर लेंगी. रमेश जी शारीरिक तौर खस्ता हालत में कोविड के साथ ही 20 तारिख को घर में फिसल जाने की वजह से भी थे. इसी बीच जब अंकित सुधाजी के साथ वापसी के लिए अस्पताल में ही एम्बुलेंस का इंतज़ार कर रहे थे तो पुलिस की मार का शिकार हुए. 22-23 की रात को रमेश जी की हालत बहुत-बहुत नाज़ुक हो गयी तो उनके दामाद राकेश ने एक SOS अपील जारी की जिसे पढ़कर मैत्रेयी पुष्पा जी ने कहीं बात करके सूचना दी कि रमेश जी के लिए ICU में एक बिस्तर का प्रबंध कर दिया गया है.

यह इत्तेला कुमार विश्वास जी ने भी साझा की कि यह करा दिया गया है, जिस पर उन्हें खूब वाहवाही मिली जिसके वे मुस्तहिक़ भी थे. ड्यूटी पर मौजूद डॉक्टर ने भी 23 तारीख़ को बताया की जल्द ही मरीज़ को ICU में शिफ्ट किया जा रहा है. रमेश जी तड़पते रहे, बिटिया गुहार लगाती रही, राकेश डॉक्टर से बात करके चिंता जताते रहे कि रमेश जी को ICU में क्यों नहीं ले जाया जा रहा. मेरे हम-ज़ुल्फ़ की की मौत से डेढ़ घंटा पहले भी राकेश ने सीनियर डॉक्टर से गुहार लगाई की उन्हें ICU में शिफ्ट कर दिया जाए जिसका फ़ैसला दिन में ही किया जा चुका था, जवाब मिला वे देखेंगे.

वे देखते रह गए और जो नतीजा निकला वह हमारे सामने है. रमेश जी संज्ञा बिटिया से लगातार यह कहते हुए ‘मुझे घर ले चलो, यहां अच्छा नहीं लग रहा.’ विश्वगुरु भारत की राजधानी के एक सरकारी अस्पताल के कुकर्मों के परिणाम स्वरूप हम सबको शर्मसार करते हुए 23-24 अप्रैल को रात लगभग 1.30 अलविदा कह गए. उन्होंने अच्छा ही किया, लेकिन याद रहे यही हम सब के साथ होना है! डॉक्टरों ने रमेश जी को ICU में भेजने से यह तर्क देकर रोका कि उनकी हालत नाज़ुक नहीं है उनको बेचारे रमेश जी कैसे ग़लत साबित करते? उनके पास एक ही तरीक़ा था कि मर कर बताएं, जो हुआ भी!

यहाँ मैं यह भी बताना चाहूंगा कि हिंदी के एक मशहूर पत्रकार ने देश के स्वास्थ्य मंत्री से बीसियों बार संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रहे. इस पर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और 23 तारीख़ की शाम तक नोएडा के एक निजी अस्पताल में ICU बिस्तर का इंतज़ाम करा दिया. उनका बहुत शुक्रिया अदा किया गया, क्योंकि जिस अस्पताल में दाख़िल थे वहीं ICU बिस्तर का इंतेज़ाम हो गया था. अगर हम किसी रत्ती भर भी इंसानियत वाले निज़ाम में रह रहे होते तो इस की गहरायी से जांच की जाती की ICU का वह बिस्तर जो रमेश जी को आवंटित हुआ था, वह किसको बेचा गया या किस की सिफ़रिश पर किसी और को पेश कर दिया गया. रमेश जी को मारकर एक और बोनस मिला, एक NON-ICU बिस्तर खाली हो गया.

जब पूरा देश श्मशान-क़ब्रिस्तान बन गया हो, हर घर पर मौत दावत दे रही हो, आरएसएस-भाजपा शासक जिन्होंने कोविड को पूरे देश में फैलने देकर अपने नारे ‘एक देश-एक विधान’ को सार्थक कर दिया हो, आरएसएस-भाजपा सरकार-भक्त कह सकते हैं कि एक शख़्स, हमारे रमेश जी की मौत क्या अहमियत रखती है! आरएसएस का एक मुखिया पहले ही बक चुका है कि राष्ट्रविरोधी लोग हल्ला कर रहे हैं.

आदतन सच अगर बताओगे

सबकुछ ख़तम होने से पहले एक बात ज़रूर साझा करना चाहूंगा. कोविड महामारी को लेकर शासकों, अफ़सरों, भारतीय स्वास्थ्य-सेवाओं (जिसका हम गुणगान करते नहीं थकते कि हमारा देश विश्वभर में ‘हेल्थ टूरिज़्म’ का destination बन गया है, दुनिया के अमीर अमरीका-यूरोप नहीं जा कर हमारे 5-8 सितारा अस्पतालों में आते हैं और देसी अमीर मरीज़ों को एयर-एम्बुलेंस से सीधे अस्पतालों में उतारा जा सकता है), सर्वोच्च न्यायालय और गिने-चुने अख़बार-चैनलों को छोड़कर मीडिया ने जो आपराधिक भूमिका निभाई है, उस सबको देखकर-जानकार-भोगकर कुछ भी असामान्य नहीं लगता, कलेजा हलक़ में नहीं आता.

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लेकिन देश की सबसे बड़ी भाषा के साहित्यकारों और सैंकड़ों संगठनों ने जो बेहिसी और बेमुरव्वती दिखाई है, उससे ज़रूर कलेजा मुंह में आता है. हिंदी साहित्य के जिन लोगों ने और संगठनों ने रमेश जी और उनके परिवार के मौजूदा दुःख के दिनों में संवेदना ज़ाहिर की या किसी काम के लिए पूछा उनकी तादाद दोनों हाथों की उंगलियों से भी कम थी. देश की साहित्य अकादमी और दिल्ली की हिंदी अकादमी के अफ़सर अब शायद शोक सभाएं करेंगे. मानो वे रमेश जी के मरने का इंतज़ार कर रहे थे. ऐसी साहित्यिक और सांस्कृतिक तंज़ीमों पर ताला लगा देना चाहिए जो अपने जीवित मनीषियों को बेमौत से न बचा सकें, लेकिन इस बात का ढिंढोरा पीटें कि वे साहित्य और सांस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित रखने के काम में लगे हैं. सच तो यह है कि अगर देश के नेताओं ने देश के लोगों के कोविड से जनसंहार के तमाम इंतज़ाम किए हैं तो यह संस्थाएं भी उनके साथ शामिल हैं. रचनाकारों को बचाने के लिए किसी भी प्रयास का मतलब होगा कि ये सरकार के जनसंहार के मंसूबों में रुकावट डाल रही हैं. इसी को दल्लागीरी कहते हैं.

रमेश जी से मेरी आख़री बार बात 20 अप्रैल को हुई थी, मैंने फ़राज़ की यह दो पंक्तियां उन्हें गाकर सुनायी थीं:

ग़म.ए.दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो,
नशा बढ़ता है, शराबैं जो शराबों में मिलें.

मेरे हमज़ुल्फ़ ने शोषण से मुक्त एक समानता और न्याय वाला समाज बनाने के लिए ज़िंदगीभर अपने निजी दुखों को बड़ी लड़ाई, समाज बदलने के संघर्ष का हिस्सा माना. मैं फ़राज़ की पंक्तियाँ सुनाकर उनके ही जीवन के मन्त्र की याद उन्हें दिलाकर उनकी हिम्मत बढ़ाने की कोशिश कर रहा था. वे बहुत दिलेर और बहादुर थे लेकिन क्या पता था कि उनकी ज़िंदा रहने की तमाम खुवाहिशों और कोशिशों के बावजूद उन्हें ICU बिस्तर से महरूम कर दिया जाएगा. जब सेवा का दम भरने वाली राजकीय संस्थाएं अमानुषिकता की तमाम न्यूनतम सीमाएं भी लांघ रही थीं तो सुधाजी और रमेश जी के बच्चों ने जिस तरह सेवा की, उस पर रमेश जी होते तो गर्व करते के बच्चों ने त्याग के कम्युनिस्ट तौर-तरीक़ों को चार चांद लगा दिए हैं. मैं यक़ीनन बता सकता हूँ कि 21 अप्रैल से लेकर 24 तक प्रज्ञा, संज्ञा, राकेश और अंकित शायद ही कभी सोए हों. संज्ञा ख़ुद कोविड की ज़बरदस्त मार झेल रही थीं, लेकिन डैडी की तीमारदारी के लिए मर्दों के वॉर्ड में ही रहीं, अंतिम सांसों तक साथ खड़ी रहीं और अपनी तक़लीफ़ेों का डैडी को ज़रा भी अहसास न होने दिया. मैं ही नहीं कोई भी मनुष्य उस मंज़र को जानकर लरज़ उठेगा जब डैडी ने दम तोड़ने से पहले संज्ञा से बिनती की थी की उन्हें घर ले चलो और उनकी लाडली बिटिया कुछ नहीं कर सकी थी. संज्ञा ने कितनी हिम्मत से अपने आपार दुःख को बर्दाश्त करते हुए डैडी के देहांत की सूचना बहन और जीजा को दी, वह संज्ञा ही कर सकती थीं. संज्ञा इस त्रासदी के फ़ौरन बाद मम्मी और अंकित की तीमारदारी के लिए कोविड के बावजूद घर पहुंचीं, जहां अभी भी तीनों की कोविड की महामारी और स्वास्थ्य सेवाओं की जनसंहारी करतूतों से जंग जारी है. राकेश के बड़े भाई साहब राजबीर जी जिन्हें खुद भी कोविड हो चुका था, ने भी किसी भी खतरे की परवाह न करते हुए दिन रात की परवाह नहीं की.

यह लोग तो घर के लोग थे उनका तो फ़र्ज़ था. चारों ओर संवेदनहीनता के माहौल में भी परिवार के बाहर महरबान सामने आए जिससे लगता है कि इंसानियत इतनी आसानी से हारेगी नहीं. दाख़ले वाली रात को रमेश जी और संज्ञा के लिए ज़रूरी दवाइयों और अन्य चीज़ों की ज़रूरत पड़ी. ओखला में ‘चैरिटी अलायन्स’ के माज़िन ख़ान जी से संपर्क हुआए उसी शाम उनके दादाजान (जनाब मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान) का देहांत हुआ था और वे उनकी क़बर को बनवाने के काम में लगे थे. उन्होंने दुकानें खुलवाईं और रात 12 बजे बिना किसी बात की परवाह किए ख़ुद सामान पहुंचाया. इसी तरह कुछ ज़रूरी सामान उन्होंने रमेश जी के दम तोड़ने से डेढ़ घंटा पहले भी पहुंचाया. इसी तरह चितरंजन पार्कए कालकाजी की इफ़टू बैटरी-रिक्शा यूनियन के साथियों ने किसी भी वक़्त शहर में क़ानूनी ताला बंदी के बावजूद दुकानें खुलवा कर ज़रूरी वस्तुएं अस्पताल पहुंचाईं. सबसे हैरतअंगेज़ और दिल को राहत देने वाला वाक़ेया उस वक़्त हुआ जब माज़िन ख़ान जी ने रमेश जी और संज्ञा के लिए बहुत ज़रूरी एक oximeter के लिए मुहम्मद ख़ावर ख़ान नाम के एक दवाई दुकान के मालिक से किसी भी क़ीमत पर लाने के लिए कहा (जो 500-800 वाला 3000 हज़ार में बिक रहा था). उन्होंने साफ़ मना कर दिया और बताया कि वे कोई भी कालाबाज़ारी वाला सामान नहीं बेचते हैं, क्योंकि वे मरीज़ों की बद्दुआ नहीं लेना चाहते. बहरहाल एक और दुकान से यह आला 2000 में ख़रीदा गया. यह हैरत में डालने वाली बात थी क्योंकि दवाई की दुकानों के मालिक कोविड के इलाज में काम आने वाली दवाइयों और oximeter जैसी वस्तुएं बेचकर रोज़ लाखों का मुनाफा कमा रहे थे, उनके लिए कोविड महामारी संकट को अवसर में बदलने जैसी थी, जिसकी सलाह देश के प्रधानमंत्री लगातार देते रहे थे.

शहीद नदीम की यह दो पंक्तियां बहुत याद आ रही हैं जो मेरे हमज़ुल्फ़ को भी बहुत पसंद थीं :

इंसान अभी तक ज़िंदा है,
ज़िंदा होने पर शर्मिंदा है.

शम्स-उल-इस्लाम जाने-माने विद्वान हैं. उन्होंने (Know the RSS, Golwalkar’s We, or Our Nationhood Defined और Muslims Against Partition जैसी प्रसिद्ध किताबें लिखी हैं.

इस लेख में दिए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं और इन्हें एनआरआईअफेयर्स के विचार न माना जाए.

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