पहली बार नौकरी में नाइट शिफ़्ट की, तो ऑफ़िस के अंदर जाते हुए हाथ ठंडे हो रहे थे। उस वक्त के बॉस ने पूछा था, ‘डर तो नहीं लगेगा’ और 23 साल की उम्र में चहककर कहा, बिल्कुल नहीं।
स्मिता मुग्धा
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हम सब कभी न कभी अपने आसपास मौजूद किसी महिला की तारीफ़ उसके साहसी होने के लिए करते हैं। तारीफ़ अक्सर ऐसी होती है कि वह बहुत मज़बूत विचारों वाली महिला है। उसने बहुत हिम्मत के साथ हालात का सामना किया। वह बहुत बहादुर लड़की है अकेले सफ़र करती है। मैंने अपने बारे में भी अक्सर ये बातें सुनी हैं।
मेरा जन्म बिहार के एक छोटे से गांव में हुआ। एक घनघोर सामंती और जातिवादी पूर्वाग्रहों से भरे परिवेश के बीच मेरा बचपन बीता। मैं हिंदी पट्टी के ऐसे घर में दूसरी बेटी के तौर पर पैदा हुई जहां पहले जन्म के बाद और इन दिनों पेट में बेटियां मारने का चलन है। ऐसे माहौल में पैदा होने के अपने कुछ अद्भुत अडवांटेज हैं। जैसे कि आपके पास खोने के लिए कुछ नहीं होता, क्योंकि जन्म से आपको कुछ मिलता नहीं न प्यार-दुलार, न वंश का चिराग़ होने का अभिमान और न सपने देखने और पूरा करने के लिए हिम्मत और आज़ादी। ज़ाहिरन मेरे पास कुछ खोने के लिए नहीं था, तो पाने के लिए कार्ल मार्क्स के शब्दों में पूरी दुनिया थी।
मेरी ज़िंदगी इस देश की करोड़ों लड़कियों की तरह बहुत आम थी। हालांकि, शिक्षा ने वह दरवाज़ा खोला जिससे मैंने बाहर की दुनिया देखी। मैंने घर छोड़ा, पढ़ाई की, नौकरी के लिए भटकी, प्रेम में रोई, अकेले होने पर डरी, असफल हो जाने के ख्याल से घबराई। अटकते-भटकते, गिरते-ठहरते ही सही, लेकिन चलती रही।
मैंने जब 14 साल की उम्र में अकेले ट्रेन में सफ़र किया तो आसपास मौजूद लोगों ने कहा कि कितनी बहादुर बच्ची है, अकेले सफर कर रही है। हालांकि, सच यह था कि डर के मारे मेरे पैर थर-थर कांप रहे थे। पहली बार जब दिल्ली मेट्रो में चढ़ी तो अपने स्टेशन से 3 स्टेशन पहले जाकर गेट पर खड़ी हो गई। अंदर से डर था कि कहीं छूट न जाऊं। पहली बार नौकरी में नाइट शिफ़्ट की, तो ऑफ़िस के अंदर जाते हुए हाथ ठंडे हो रहे थे। उस वक्त के बॉस ने पूछा था, ‘डर तो नहीं लगेगा’ और 23 साल की उम्र में चहककर कहा, बिल्कुल नहीं। ज़ाहिरन झूठ कहा था क्योंकि सन्नाटे में वाकई डर लग रहा था।
मुझे जब कोई कहता है कि तुम बहुत बहादुर हो, तो मुझे वह तारीफ़ नहीं लगती। हकीकत है कि मैं एक बहुत डरपोक लड़की हूं। अकेले सफ़र करने में डर लगा, अकेले चलने में डर लगा, बुखार में अकेले कमरे में रहने और डॉक्टर के पास जाने में डर लगा। प्रेम करने में भी डर लगा। ज़िंदगी में अपनों को खो देने का डर लगा। कॉलेज मे प्रेजेंटेशन या नौकरी इंटरव्यू देने में डर लगा। हमेशा डर लगा।
अपने आसपास की जिन महिलाओं को आप हिम्मती समझते हैं, कभी आपने उनका हाथ पकड़कर पूछा है, ‘डर तो नहीं लग रहा?’ एक बार उन औरतों का हाथ प्रेम और भरोसे के साथ पकड़िए। फिर वो बताएंगी, ‘डर सबको लगता है, हमें भी लगा। हमने नहीं कहा, क्योंकि हमारे पास खोने के लिए अब अपनी आज़ादी और उम्मीद थी।’ डर लगता है, प्रेम करने या साथ पाने की चाहना सबको होती है। यह सहज स्वाभाविक इच्छा है। करुणा और भावना से सिक्त मन और जीवन सबकी कामना होती है। मर्दों के पास वह दरवाज़ा हमेशा खुला रहता है जहां से बाहर जाते हैं। औरतों के लिए यह वन-वे होता है इसलिए आपकी पत्नियां, बेटियां, दोस्त, प्रेमिकाएं आपसे, दुनिया से समाज से झूठ बोलती हैं कि उनको डर नहीं लगता।
उन्हें भी डर लगता है, लेकिन इन छोटे डरों से बड़ा डर उस दरवाज़े का है जो अगर एक बार बंद हुआ, तो शायद नहीं खुलेगा। एक बार छेड़खानी से डर गईं, तो शायद पढ़ाई छूट जाए। एक बार घर लौट गईं, तो शायद फिर कभी अकेले कमरे में रहने का सपना पूरा न हो। एक बार जॉब छोड़ दी, तो शायद कभी दोबार नौकरी पर न लौट सकें। दरवाज़े बंद होने का डर इतना बड़ा है कि उसके सामने बाकी डर बौने होते चले जाते हैं।
प्रिय पाठकों! या आलोचकों! अगर आप ऐसी ही एक डरपोक लेकिन झूठी हिम्मती लड़की के साथ बातचीत ज़ारी रखना चाहते हैं, तो मैं हर हफ़्ते हाज़िर हो जाऊंगी। कभी हम बात करेंगे, कभी बस यूं ही कोई मोनोलॉग हो सकता है या कभी आप जो जानना चाहें या पढ़ना चाहें, वो मैं लेकर आऊंगी। आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा।
स्मिता मुग्धा पत्रकार हैं. सच कहने का साहस रखती हैं. सोशल मीडिया पर सच के लिए अक्सर जूझती नजर आती हैं. यहां आपको सच से सामना कराती रहेंगी.
इस लेख में दिए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं और इन्हें एनआरआईअफेयर्स के विचार न माना जाए.