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Home Literature

प्रेमचंद की ‘ईदगाह’ को यहां से देखिए

NRI Affairs News Desk by NRI Affairs News Desk
August 5, 2021
in Literature
Reading Time: 3 mins read
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प्रेमचंद की ‘ईदगाह’ को यहां से देखिए
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प्रेमचंद आदर्शों और नैतिकताओं से कोई समझौता नहीं करते! बता रहे हैं सुधांशु गुप्त…

आज प्रेमचंद की जयंती है। 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के लमही गांव में उनका जन्म हुआ। वह हिन्दी और उर्दू के बहु पठित, बहु प्रशंसित और बहु लोकप्रिय लेखक हैं। आज मौका है उनकी कहानी पर बात करने का। लेकिन बात करने से पहले उनकी कहानी ईदगाह का सारः

ईद के अवसर पर गांव में ईदगाह जाने की तैयारियां हो रही हैं। सभी लोग कामकाज निपटा कर ईद के मेले में जाने की जल्दी में है। बच्चे सबसे ज्यादा खुश हैं , उन्हें गृहस्थी की चिंताओं से कोई मतलब नहीं है। उन्हें तो यह भी नहीं मालूम कि उनके अब्बाजान ईद के लिए पैसों का इंतजाम करने चौधरी कायमअली के घर दौड़े जा रहे हैं। और यदि चौधरी पैसे उधार देने से मना कर दे तो वह ईद का त्यौहार नहीं मना पाएंगे। उनका यह ईद की खुशी मुहर्रम जैसे मातम में बदल जाएगा। बावजूद इसके बच्चे तैयारियों में जुटे हैं। बच्चों को तो बस ईदगाह जाने की जल्दी है। कोई जूते ठीक करा रहा है तो कोई कपड़े तैयार कर रहा है।

हामिद चार-पांच साल का दुबला पतला लड़का है। वह अपनी दादी अमीना के साथ रहता है। उसके माता-पिता गत वर्ष गुजर चुके हैं। परंतु उसे बताया गया है कि उसके अब्बाजान रुपए कमाने गए हैं। उसकी अम्मी जान अल्लाह मियां के घर से उसके लिए अच्छी-अच्छी चीजें लाने गई हैं।  इसलिए हामिद आशावान है और प्रसन्न है।

अमीना ख़ुद सवैयों के इंतज़ाम के लिए घर पर रहकर हामिद को तीन पैसे देकर मेले भेज देती हैं। हामिद के साथ उसके दोस्त मोहसिन, महमूद, नूरे और सम्मी भी हैं। रास्ते में बड़ी बड़ी इमारतें, फलदार वृक्ष जिन्हें देखकर बच्चे तरह तरह की कल्पनाएं करते हैं। 

रास्ते में बच्चे बात करते हैं। महमूद ने कहता है, हमारी अम्मीजान का तो हाथ कांपने लगा, अल्ला कसम।

मोहसिन बोला, चलो मनो आटा पीस डालती है। जरा सा बैट पकड़ लेगी तो हाथ कांपने लगेंगे। सैकड़ों घड़े पानी रोज़ निकालती है। 

महमूद, लेकिन दौड़ती तो नहीं, उछल कूद तो नहीं सकती।

प्रेमचंद ने ईद का पूरा परिवेश बुना है। मिठाई की दुकानें, झूले, सब कुछ है। 

ईदगाह की नमाज़ के बाद हामिद के दोस्त चरखी के ऊपर झूलते हैं, लेकिन वह दूर खड़ा रहता है। खिलौने की दुकान से मोहसिन भिस्ती, महमूद सिपाही, नूरे वकील और सम्मी धोबिन खरीदता है। हामिद कुछ नहीं खरीदता। सभी दोस्त मिठाइयां खरीदते हैं और हामिद को चिढ़ा चिढ़ा कर खाते हैं। मेले के अंत में लोहे की दुकान पर हामिद को चिमटा दिखाई देता है तो उसे अमीना का ख़्याल आता है। चिमटा छह पैसे का है। जबकि हामिद के पास केवल तीन पैसे हैं।  दुकानदार से मोलभाव करके वह चिमटा खरीद लेता है। हामिद चिमटे के पक्ष में ऐसे-ऐसे तर्क देता है कि उसके दोस्त प्रभावित हो जाते हैं। उनके खिलौनों के सामन  चिमटा भारी पड़ता है। हामिद घर पहुंचता है तो दादी उसे प्यार से गोद में बिठा लेती हैं। लेकिन अचानक उसके हाथ में चिमटा देखकर चौंक जाती है। वह उसकी नासमझी पर क्रोधित होते हुए पूछती है कि पूरे मेले में उसे कोई और चीज़ खरीदने को नहीं मिली। हामिद अपराधी भाव से बताता है कि तुम्हारी उंगलियां तवे से जल जाती थीं, इसलिए उसने चिमटा खरीदा। दादी का क्रोध स्नेह में बदल जाता है। 

दादी अमीना एक बालिका के समान रोने लगती है। वह दामन फैलाकर हामिद को दुआएं देती जा रही थी तथा आंसुओं की बड़ी बड़ी बूंदें गिरती जा रही थी। हामिद नहीं समझ पा रहा था कि वह दादी के लिए चिमटा लाया है त दादी रो क्यों रही हैं। 

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अगर सामान्य दृष्टि से देखा जाए तो यह एक बढ़िया आदर्शवादी कहानी है। प्रेमचंद अपनी कहानियों के विषय में कहते भी हैं कि वे उद्देश्यपूर्ण लेखते हैं। यानी कहानी लिखने से पहले ही उनका मंतव्य साफ रहता है। ईदगाह कहानी लिखते समय भी उनके ज़ेहन में यह साफ होगा कि हामिद अंत में चिमटा खरीदेगा। इसके लिए प्रेमचंद ने बाकायदा माहौल बनाया।

हामिद के दोस्त बताते हैं कि उनकी अम्मी का हाथ कांपता है। अगर वे दोस्त हामिद (4-5 साल) से बड़े भी हैं तब भी उनकी मां का हाथ नहीं कांपना चाहिए। लेकिन हाथ कांपते हैं, क्योंकि प्रेमचंद को कहानी चिमटे तक ले जानी है। हामिद पूरे मेले में किसी चीज का लुत्फ नहीं उठाता, न वह झूला झूलता है, न कोई खिलौना खरीदता है और न ही उसे मिठाई अच्छी लगती है। यहां लेखक ने शुरू से उसे मन में यह बिठा दिया है कि उसे चिमटा ही खरीदना है। अच्छा होता प्रेमचंद कहानी में हामिद को किसी और चीज के प्रति लालायित होते दिखाते। या दिखाते कि उसका मन कुछ और खरीदने को कर रहा है। लेकिन कहीं ऐसा नहीं हुआ।

हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि हामिद की उम्र चार पांच साल की है। इस कहानी को मनोवैज्ञानिक कहानी माना गया है लेकिन अगर गंभीरता से देखा जाए तो यह बाल मनोविज्ञान के विरुद्ध जाती दिखाई पड़ती है। पूरी कहानी पहले से सोची समझी कहानी है। लेकिन पहले ही सब तय कर चुका है कि किस आदर्श को कहानी में स्थापित करना है। वही प्रेमचंद ने इस कहानी में किया है। पहले से सोची समझी और आदर्श को स्थापित करने वाली इन कहानियों में दिक्कत यह होती है कि कहानी को प्रवाह नहीं बनता और उसकी सहजता खत्म होती है।

ईदगाह को दोबारा पढ़ते हुए मैं सोच रहा था कि अगर इस कहानी को मंटो, राजेन्द्र सिंह बेदी या कृष्ण चंद्र ने लिखा होता तो क्या ये ऐसी ही कहानी होती। मुझे लगता है कतई नहीं। मंटो हामिद को मेले में एक अलग किरदार के रूप में विकसित करते। संभव है वह यह दिखाते कि हामिद ने तीन पैसे मिठाई या झूले में खर्च कर दिए हैं और अब वह चिमटे के बारे में सोच रहा है। या यह भी संभव है कि वह चिमटे के बारे में हामिद को सोचते बिल्कुल ना दिखाते। यह दिखाते कि हामिद को चिमटे का पूरे मेले में ख़्याल ही नहीं आया।

लेकिन प्रेमचंद अपनी कहानियों में भी समझौतापरस्त हैं। वह अपने आदर्शों और कथित नैतिकताओं से कोई समझौता नहीं करते। उन्होंने वही लिखा जो उनके आदर्शों पर खरा उतरा। इसे आप उनकी ताक़त भी मान सकते हैं और कमजोरी भी। 

कहानियां लिखते हुए तीन दशक हो चुके हैं, लेकिन जो चाहता हूं उसका पांच प्रतिशत भी नहीं लिख पाया। कहने को तीन कहानी संग्रह-खाली कॉफ़ी हाउस, उसके साथ चाय का आख़िरी कप, स्माइल प्लीज़ छप चुके हैं। चौथा संग्रह ‘तेरहवां महीना’ भी पूरी तरह तैयार है। लेकिन लिखना मेरे भीतर के असंतोष को बढ़ाता है। और यही असंतोष मुझे लिखने के लिए प्रेरित करता है। इसलिए मैं जीवन में किसी भी स्तर पर संतोष नहीं चाहता! किताबों से मेरा प्रेम ज़ुनून की हद तक है। कहानियां मेरे जीवन में बहुत अहम हैं लेकिन वे जीवन से बड़ी नहीं हैं। 

Featured Photo by aam jb from Pexels

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