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Home Literature

कहानी को यहां से देखिए: स्वभाव के विपरीत जाने से खुश नहीं होगा ईश्वर!

NRI Affairs News Desk by NRI Affairs News Desk
June 27, 2021
in Literature
Reading Time: 2 mins read
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pexels caio 46274
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उन्हीं कहानियों का पाठक पर लंबे समय तक प्रभाव रहता है जिसमें सच सार्वभौमिक हो। यह सच समय, परिवेश या किरदार के अनुरूप ना बदल जाए। यही कहानियां कालजयी कहलाती हैं।

सुधांशु गुप्त

कहानियां जीवन से बाहर नहीं होतीं। स्वप्न, चेतन, अवचेतन या फैंटेसी ये सब जीवन का ही हिस्सा हैं। जब भी हम कोई कहानी पढ़ते हैं, तो पाठक पर उसका प्रभाव उसकी सोच के अनुरूप ही पड़ता है। तेरा सच, मेरा सच, इसका सच या उसका सच…कहानी में हर पाठक अपने-अपने हिस्से का सच तलाश कर लेता है। लेकिन सच निजी नहीं होता वह सार्वभौमिक होता है। उन्हीं कहानियों का पाठक पर लंबे समय तक प्रभाव रहता है जिसमें सच सार्वभौमिक हो। यह सच समय, परिवेश या किरदार के अनुरूप ना बदल जाए। यही कहानियां कालजयी कहलाती हैं। इन कहानियों की खास बात यह भी है कि 100 या डेढ़ सौ साल बीत जाने पर भी इनका असर कम नहीं होता। यहां हम हर स्तंभ में एक कहानी पर चर्चा करेंगे। पाठकों की सहूलियत के लिए हम कहानी का सार भी देंगे। 

पहली कहानी के तौर पर हम बात करेंगे अनातोले फ़्रांस की एक कहानी ‘मदारी’ पर। नोबेल पुरस्कार प्राप्त अनातोले फ़्रांस का जन्म 1844 में पेरिस में हुआ और उनका बचपन पिता की किताबों की विशाल दुकान के बीच बीता। शायद यहीं से उनके भीतर पढ़ने लिखने की ललक पैदा हुआ। जब वह 24वर्ष के थे तो सपनों में डूबे रहते। उनके चारों ओर किताबों का समुंद्र था। अनातोले फ़्रांस की कहानियां अपने समय के सच को रेखांकित करती हैं और अच्छी बात यह है कि उनकी मृत्यु के लगभग 100 साल बाद भी उनकी कहानियों का प्रभाव कम नहीं हुआ। ‘मदारी’ एक ऐसी ही कहानी है। 

प्रस्तुत है ‘मदारी’ का सारः 

फ़्रांस के एक राज्य में बार्नेबी नाम का मदारी था। वह गांवों और कस्बों में सड़क पर फटी पुरानी दरी बिछाकर खेल दिखाया करता था। वह तरह-तरह की मजेदार आवाज़ें निकालता, कभी नाक की नोक पर एक तश्तरी रखता, कभी हाथों के बल खड़ा होकर चमचमाती हुई छह तांबे की गेंदों को पैरों से उछालता और फिर पकड़ लेता। कभी वह पेट के बल जमीन पर लेट जाता, अपनी टांगों को ऊपर उठाकर गर्दन से मिला देता और फिर इसी हालत में लगभग एक दर्जन चाकुओं से हाथ की सफ़ाई दिखाता। उसके आसपास जुटने वाली भीड़ खुशी से तालियां बजाती। 

केवल अपनी चतुरता के बल पर जीवित रहने वालों को जैसी कठिनाइयां होती हे, वैसी ही बार्नेबो को भी होती। लेकिन बार्नेबो ने कभी धन संपदा कमाने की नहीं सोची। वह जैसे जीवन गुजार रहा था, उसी में खुश था। एक दिन काफ़ी पानी बरसा। वह खेल नहीं दिखा पाया। बगल में फटी दरी, जिसमें गेंदें और चाकू लिपटे थे, लिए वह उदासी से जा रहा था। उसकी मुलाकात एक भिक्षु से होती है। भिक्षु उसकी सरलता से प्रभावित होता है और उसे भिक्षु बनने की सलाह देता है। बार्नेबी भिक्षु के साथ चला जाता है। वहां वह देखता है कि सब भिक्षु देवी मरियम को प्रसन्न करने के लिए अलग-अलग काम कर रहे हैं। कोई चित्र बना रहा है, कोई धर्म शास्त्रों के अनुसार पुस्तकें लिख रहा है, कोई कविता लिख रहा है, कोई प्रतिमा बना रहा है। यानी सभी भिक्षु देवी का यशोगान कर रहे हैं। वह सोचता है कि मैं भी कैसा मूर्ख हूं। कोई भी कला और कारीगरी नहीं जानता। देवी मरियम की स्तुति में भजन नहीं गा सकता, चित्र नहीं बना सकता, प्रतिमा नहीं बना सकता। एक दिन उसने कुछ भिक्षुओं को बातें करते सुना। उनमें से एक कह रहा था कि एक ऐसा भिक्षु था जो बिल्कुल अज्ञानी था और केवल मेराया ही जपा करता था। बेचारे गरीब भिक्षु को लोग उपेक्षा से देखा करते थे। लेकिन जब उसकी मृत्यु हुई तो उसके मुंह से मेराया नाम के प्रत्येक शब्द के लिए एक गुलाब का फ़ूल निकला। इस प्रकार उसकी पावन भक्ति का संसार को प्रमाण मिल गया। 

यह कहानी सुनकर बार्नेबी के दिल में माता वर्जिन के प्रति और भी स्नेह और भक्ति उमड़ आई। एक दिन बार्नेबी सुबह सुबह अन्दर गिरजे में गया। वह वहां लगभग एक घंटे तक रहा। दोपहर का खाना खाने के बाद वह फिर से गिरजे में चला गया। इस तरह जब भी गिरजे में कोई नहीं रहता बार्नेबी वहां पहुंच जाता और बहुत देर तक रहता। प्रत्येक शिष्य के व्यवहार पर नज़र रखना अध्यक्ष का कर्तव्य था। एक दिन वह दो भिक्षुओं को लेकर गिरजे में पहुंचा। किवाड़ बाहर से बन्द थे। उन्होंने किवाड़ों की दरार में से झांका तो उन्होंने देखाः माता के समीप बार्नेबी पैर ऊपर किए सिर के बल खड़ा छह तांबे की गेंदों और 12चाकुओं को पैरों से उछाल रहा है। जिस कला के लिए वह प्रसिद्ध था, उसी का प्रदर्शन देवी को प्रसन्न करने के लिए कर रहा था। यह देखकर दोनों वृद्ध भिक्षु चिल्ला पड़े, ‘हाय, हाय! यह तो धर्म के विरुद्ध आचरण कर रहा है, यह पाप है।‘ 

लेकिन अध्यक्ष भिक्षु जानता था कि बार्नेबी की आत्म कितनी शुद्ध है, इसलिए उसे लगा कि बार्नेबी पागल हो गया है। तीनों ने यह तय किया कि सावधानी से वे बार्नेबी को वहां से हटा देंगे। तभी अचानक तीनों भिक्षुओं ने देखा, माता अपने सिंहासन से उतर कर वेदी पर आई और आकर अपने नीलांचल से उन्होंने बार्नेबी के सिर से पसीने की बूंदें पोंछ दीं! 

यह देखकर अध्यक्ष भिक्षु ने कहा, ‘सरलहृद्य मनुष्य धन्य है, क्योंकि वे ईश्वर के दर्शन करेंगे।’

बस इतनी सी ही कहानी है। यह कहानी कहती है कि ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए हमें अपने स्वभाव के अनुरूप (यानी जो हम जीवन में करते हैं) ही काम करना चाहिए। अब जरा सोचकर देखिए क्या यह किसी व्यक्ति का सच है! नहीं, यह सार्वभौमिक सच है और इसलिए यह कहानी को कालजयी बनाता है। 

सुधांशु गुप्त. कहानियां लिखते हुए तीन दशक हो चुके हैं, लेकिन जो चाहता हूं उसका पांच प्रतिशत भी नहीं लिख पाया। कहने को तीन कहानी संग्रह-खाली कॉफ़ी हाउस, उसके साथ चाय का आख़िरी कप, स्माल प्लीज़ छप चुके हैं। चौथा संग्रह तेरहवां महीना भी पूरी तरह तैयार है। लेकिन लिखना मेरे भीतर के असंतोष को बढ़ाता है। और यही असंतोष मुझे लिखने के लिए प्रेरित करता है। इसलिए मैं जीवन में किसी भी स्तर पर संतोष नहीं चाहता! किताबों से मेरा प्रेम ज़ुनून की हद तक है। कहानियां मेरे जीवन में बहुत अहम हैं लेकिन वे जीवन से बड़ी नहीं हैं।

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प्रश्नांकन पर विश्वास ने ‘अपने अपने कुरुक्षेत्र’ को प्रासंगिक बनाया
कहानीः चौबीस किलो का भूत
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