पान को हिंदुस्तान में शान समझा जाता है। लखनऊवा पान और बनारसी पान के चर्चे आम हैं। लखनऊ में नफ़ासत का राग है तो बनारस में ठेठपन का अलाप। नीलिमा पांडेय बता रही हैं कुछ किस्से...
पान बनारस की रूह और रंग-ओ-आब में शामिल है। बनारसी अदा, लहजे और संस्कृति से एकसार हो जाने का ख़ास मक़ाम है पान। नज़ाकत और ठेठपन को दाएं-बाएं संभालता एक ही समय में राजा और रंक का एहसास कराता, दत्तचित्त गली-गली, नुक्कड़-नुक्कड़ हौसलाफजाई करता सदियों से विराजमान है। हिंदुस्तान में हम लोग खानदानी, संस्कारी वगैरह होने की बात करते अघाते नहीं हैं I हर आदमी अपनी पुश्तों को इन दो बातों से नवाजता मिल जाता है I हमें इस दावेदारी से न कोई गुरेज़ है और न ही इस पर कोई संदेह।
अपनी ही समझ का फेर रहा कि इन्हें ‘सिविक-सेन्स’ से जोड़ कर देखते रहे। तमाम उम्र निकल जाने के बाद इल्म हुआ कि ‘सिविक सेन्स’ का सर्वत्र उल्लंघन करने वाला भी घोर संस्कारी हो सकता है। खैर ! हम बनारस में हैं और चौतरफ़ा फैली हुई मलमूत्र से की गई पच्चीकारी और पान की पीक से की गई चित्रकारी से सर्वत्र फैली दिव्य-दर्शनीयता से आह्लादित हैं! ये सिर्फ़ बनारस की ही खासियत नहीं है I हमारे उत्तरप्रदेश के दूसरे शहर इस मामले में बराबर का जोड़ रखते हैं और बनारस को कड़ी टक्कर दे सकते हैं। इस मामले में वे बनारस से सिर्फ़ एक दो पायदान ही नीचे हैं।
पान को हिंदुस्तान में शान समझा जाता है। लखनऊवा पान और बनारसी पान के चर्चे आम हैं। लखनऊ में नफ़ासत का राग है तो बनारस में ठेठपन का अलाप। हालांकि लखनवी नफासत अब बीते दिनों की बात हुई। कुछ पुराने इलाकों को छोड़ दिया जाए तो बाकी एक नया शहर है। जिसकी नब्ज़ नजाकत-नफासत की कोई थाह नहीं देती है। बनारस ने फ़िर भी अपना ठेठपन अभी बचा रखा है। हमारे बम्बइया महानायक ने ‘खाई के पान बनारस वाला’ की लय-ताल पर नृत्य प्रस्तुत कर बनारसी पान को जो इज्ज़त बख्श दी वह बेजोड़ है। लखनऊवा पान के साथ-साथ बाकी बचे इलाकाई पान इस इज्ज़त अफज़ाई पर यकीनन रश्क़ करते हैं।
बनारसी पान का ये तिलिस्म बनारस की गलियों में ऊपर से बरसती हुई पीक के आशीर्वाद और चौतरफ़ा फैली चित्रकारी को देखने के बाद टूटता ज़रूर है और अक्ल पर कुछ पल के लिए ही सही ताले पड़ जाते हैं। पान बनारसी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा है। यहाँ पान खाया नहीं जाता घुलाया जाता है। ‘घुलाना’ का असल मायेने तो कोई बनारसी ही तफ़सील से बता सकता है। फ़िलहाल ये समझा जा सकता है पान का दीर्घकालिक रसास्वादन पान घुलाना है। घुलाने की दक्षता हो तो दो-तीन घंटे तक पान मुंह में विश्राम कर सकता है। असल हुनरमंदी उसके बाद दिखाई जाती है। जिसकी तमाम नजीरें गलियों , मकानों की दीवारों पर देखी जा सकती हैं। बनारसी गलियों में मकानों की दीवारें कमर से पैर तक चित्रांकित मिलती हैं।
अड़ोसियों-पड़ोसियों की इस हुनरमंदी के कायल लोग अपने घरों की बाहरी दीवारें रामरज से पुतवाते हैं। सफेद दीवार मने, “आ बैल मुझे मार!!!” पान के शौकीनों, उनकी अदाओं और पान घुलाने से जुड़े बनारसी किस्सों पर पूरा का पूरा आख्यान लिखा जा सकता है। हम सूत्र वाक्य की तरफ़ बढ़ते हैं। पान खाना, घुलाना भौतिक जगत के कर्म हैं । असल मर्म तो पीक से की गई चित्रकारी में है। इसमें उपनिषदीय सार है , वेदांत की धार है। और यही मुक्ति का मार्ग है। इसलिए पान- थुकौवल पर बनारस में नोंक-झोंक भले ही हो जाए या फिर मीठी वाली तू-तड़ाक मामला गाली–गलौज पर थम जाता है , हिंसा तक नहीं पहुंचता। क्योकि बनारस की गली –गली, कूचा- कूचा मुक्ति के लिए प्रयासरत है। अल्लड़पन और ठेठपन वहां की संस्कृति का मर्म है उसी में मुक्ति का राग और राज छुपा हुआ है।
चलते-चलते आपकी नज़र बनारसी पान का एक और किस्सा : किस्सा क्या हक़ीकत है। इसे अभिषेक श्रीवास्तव ने अपनी ‘बनारसी अड़ी’ में दर्ज़ किया था। बकौल अभिषेक श्रीवास्तव, “यह बात शायद 2011 की है जब जाड़े के मौसम में मैं सिगरा के मधुर मिलन पर लौंगलता उठा रहा था और महमूरगंज से लेकर सिगरा चौमुहानी तक चपसंड जाम लगा हुआ था। शहर में कोई नया कप्तान आया था। उसने हैलमेट पहनना अनिवार्य कर दिया था। एक सज्जन को मधुर मिलन के थोड़ा सा आगे एक सिपाही ने धर लिया और साइड में लखेदने लगा। उस व्यक्ति ने आराम से स्कूटर रोका, चाबी घुमाकर बंद किया, गाड़ी स्टैंड पर लगा दी।
सिपाही बोला, ‘’चालान कटेगा”। स्कूटर सवार ने मौनव्रत धारण किया हुआ था। उसने स्कूटर की चाबी सिपाही को पकड़ायी, हाथ से कट लेने का इशारा किया और आगे बढ़ लिया। सिपाही उसके पीछे-पीछे भगा और गट्टे से पकड़ कर बरजोरी करने लगा। यह देखकर सज्जन दुर्वासा हो गए। उन्होंने सड़क पर रिक्त स्थान का मुआयना किया और पाव भर पीक वहां मार दी। ‘’हाथ छोड़’’, वे गरजे। सिपाही का टेप चालू रहा, ‘’ई चाभी अपने पास रखिए, चलिए चालान कटेगा।‘’ ‘’कवने बात क चालान बे’’? सज्जन ने मध्यमा को कल्ले में घुसाकर मुंह खोदते हुए पूछा। सिपाही ने बताया कि हैलमेट नहीं पहनने पर पांच सौ का चालान है।
सज्जन का पारा चढ़ा हुआ था, उन्होंने गरियाते हुए कहा, ‘’xxxx हउवे का बे? हेलमेटवा पहिन लेब त पान कइसे थूकब?” उसके थोड़ी देर बाद दृश्य बदल गया। कृशकाय सिपाही कोने में हो लिया और सज्जन स्कूटर लेकर चलते बने।” खैर! जिक्र-ए-बनारस हो और शिव की उपस्थिति न हो तो बात अधूरी लगती है। रुखसती से पहले एक किस्सा महादेव की नज़र : एक बनारसी की तपस्या से प्रसन्न होकर प्रभु प्रकट होते हैं और वरदान स्वरूप उसको अमृत की भेंट देते हैं। प्रभु का अनुमान था कि बनारसी प्रसन्नता पूर्वक फौरन अमृत का रसपान करेगा। लेकिन यहाँ तो मामला उल्टा है। बनारसी के चेहरे पर दुविधा भरी हिचकिचाहट है। प्रभु उससे पूछते हैं- भगवान – “क्यों वत्स..अमृत क्यों नहीं पी रहे?” बनारसी – “अभहियें पान खाये हैं प्रभु।।”
नीलिमा पांडेय
एसोसिएट प्रोफेसर, जे.एन. पी.जी.कालेज ,लखनऊ विश्वविद्यालय, उत्तर प्रदेश
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