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Home Literature

अनिल प्रभा कुमार की कहानीः इन्द्रधनुष का गुम रंग

Vivek by Vivek
August 6, 2021
in Literature
Reading Time: 9 mins read
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पढ़िए, अमेरिका में रहने वालीं हिंदी साहित्यकार अनिल प्रभा कुमार की कहानी…

मैं चाह रही थी वह थोड़ा धीरे चले। मेरे साथ चले। मैं आवाज़ देकर उसे रोक नहीं सकती थी। न ही तेज़ी से चलकर उसके बराबर हो सकती थी। बस उसके पीछे इतनी ही दूरी बनाकर चल रही थी कि वह ऐतराज न कर सके।d

उसे इस बात की परवाह नहीं थी कि मैं उसके साथ रहूँ या न रहूँ। मेरे लिए उसका इस वक्त मेरे साथ होना ही बहुत बड़ा हौसला था। मैं डर रही थी और वह निधड़क। यह उसका क्षेत्र था। मुझे लगा कि जैसे मैं उसकी ओट में चल रही हूँ। शायद दूसरे लोगों को यह भ्रम देने के लिए कि मैं उसके साथ हूँ ।

उसकी लम्बाई मुझसे थोड़ी ज़्यादा थी। पर चौड़ाई और सुडौलता मेरे मुक़ाबले कहीं ज़्यादा। वह चलती तो उसके शरीर के अंग भी उसके आगे-पीछे चलते। सिर पर काले-घुँघराले  बालों का छत्ता अडिग रहता। उसके  चेहरे के नक्शों में एक कोमलता थी पर उसके विपरीत चेहरे का स्थायी भाव था- दुनिया मेरी ठोकर पर। शायद मुझे ऐसे ही किसी इन्सान की ओट की सख़्त ज़रूरत थी।

हम लगभग इस स्ट्रीट का दो तिहाई रास्ता पार करने के बाद रुक गए। आगे बीच सड़क पर कुछ पड़ोस के लड़के  बॉस्कट-बॉल को टप्पे देते हुए इधर से उधर भाग रहे थे। अपने घर की सीमा से बाहर, पटरी पर किसी ने यह बॉस्कट- बॉल का हूप लगा दिया था। मेरे क़दम अपने–आप धीमे हो गए।

मुझे थोड़ी- सी खीज हुई। यह ठीक तो नहीं लगता कि सड़क को भी अपनी प्रॉपर्टी बना लो। कोई चले कहाँ? इससे ज़्यादा मुझे इस देश के क़ानून के बारे में नहीं मालूम। मैं उन लड़कों को देख रही थी। दौड़ते हुए आते और लहराते हुए गेंद उस छल्ले में लगी टोकरीनुमा जाली में ऐसे डाल देते, जैसे कोई बात ही न हो।

शायद दो टीमें थीं। कुछ ने लाल रंग की बिना बाहों की टी-शर्ट पहनी हुई थी और काली शॉर्टस। बाक़ी के लोगों ने भी काली ही शॉर्टस के ऊपर नीले रंग की, बिना बाहों की कुछ अजीब-सी लगती लम्बी बनियान सी। बाद में मुझे  पता चला कि उन्हें ‘मसल्ज़ टैंक- टॉप’ कहते हैं। उनमें खेलते हुए लड़कों की बाहों की मछलियाँ मचल रही थीं।

लम्बे लड़के, काले लड़के। जिन्हें बस अपने पंजों पर उचकना होता और  गेंद उस जाली के अन्दर। इतना आसान नहीं था शायद जितना दिखता था।  इस सफलता से पहले उन्हें अपनी प्रतिद्वन्द्वी टीम के लोगों से जूझना पड़ता। कोई किसी का  लिहाज़ नहीं। बाज जैसे झपट्टे, ज़मीन पर पटके जाने की पूरी तैयारी के साथ वह भाग रहे थे।

अभी तक वह भी मेरे साथ सड़क के किनारे पर ही रुकी हुई थी।

“हेय्य्य्य कोफ़ी”। उसने  भरपूर आवाज़ के साथ किसी लड़के को आवाज़ दी।

एक लाल टैंक-टॉप वाले लड़के ने पलट कर देखा। मुस्कराया। “यो…., आलियाह।“

वह फिर खेलने में व्यस्त हो गया। मुझे अब उसका नाम पता चल गया- आलियाह।

“जल्दी घर चल।“ आलियाह ने रोब से कहा।

“खेल रहा हूँ। कोई परेशानी?”

“फिर डिनर खाने भी मत आना।“

कोफ़ी ने मुँह बिचका दिया। मुझे लगा कि शायद कोफ़ी उसका छोटा भाई है। मुझे अपना छोटा भाई याद आ गया। शायद सभी छोटे भाई एक ही तरह से मुँह बिचकाते हैं।

आलियाह अपने घर के अन्दर मुड़ गई।

अब मैं सड़क पर अकेली खड़ी थी- बिना किसी ओट के।

लड़के अभी भी सड़क पर थे। मैं पटरी पर आ गई। अभी एक ब्लॉक और चलना था-अकेले।

यह अकेले होने का डर मेरे ऊपर हावी होने लगा। शायद घबराहट से मेरी साँस तेज़ हो रही थी। यह मुखौटा लगाने का समय था। किसी को पता नहीं चलना चाहिए कि मेरी अन्दर ही अन्दर घिग्घी बँध रही है। मैने होंठ कस लिए और नज़र को कहीं दूर स्थिर किया। चेहरा अपने-आप तन गया। बस एक गोताखोर की तरह मुझे सड़क के इस छोर से उस छोर तक, साँस रोककर निकल जाना है।

गेंद की टपाटप, लड़कों की आवाज़ों का शोर सब पीछे छूटता गया।

सड़क की जिस ओर मैं चल रही थी वहाँ “घर” थे। घर इसलिए कि वहाँ लोग रहते थे। घर के अन्दर कम, बाहर बढ़ रहे छज्जों और बरामदों में ज़्यादा। या उससे भी ज़्यादा पटरी और सड़क पर। कोई गाड़ी आ जाती तो सरक कर पटरी पर चले जाते। शाम को बरामदों या बॉल्कनी में रखे कोयलों वाले ’बार-ब-क्यू’, मेरी समझ में छोटे तन्दूर पर, माँस पकता। उसके भूनने की गँध मुझसे झेली नहीं जाती। अजय को इससे परेशानी नहीं होती। उसे परेशानी होती है सुबह काम पर जाते हुए, सड़क किनारे लुढ़की हुईं शराब और बीयर की बोतलों से। वह उनको देखकर और भी चुप हो जाता। शायद वह उनसे बीती रात की कहानी का अन्दाज़ा लगाता था।

हम दोनों को बिना ज़ाहिर किए भी मालूम था कि कुछ समय तक इसी पड़ोस में रहना है। मैं काम पर आते-जाते हुए, इन्हीं टूटे काँचों के बीच सावधानी से पाँव रखती, बच कर निकलने की कोशिश करती। जैसे पुरानी दिल्ली की अपनी बजबजाती गली से भी नाक पर दुपट्टा रख, पाँव सम्भाल कर चलती थी। तब किसी नाली के रुक जाने पर गन्दगी सारी गली में फैल जाया करती।

इस वक्त मैं अमरीका की एक गन्दी स्ट्रीट पर थी। जिसके बीच में था हमारा अपॉर्टमेंट। जिसके किराए में फ़र्नीचर की किस्त भी जुड़ी थी। हमारा पहला ठिकाना।

जल्दी-जल्दी क़दम बढ़ाती उस बिल्डिंग तक पहुँच गई जिसके अन्दर मेरा “घर” था।

मैं दाएँ-बाएँ नहीं देखती।  देखती हूँ तो बस सड़क की वह पाँच सीढियाँ। जिन्हें चढ़कर मुझे बायें हाथ पर लगे बक्से में एक पासवर्ड नम्बर दबाना है। दरवाज़ा खुल जाएगा। अन्धेरा-सा फ़ोयर होगा जिसके ऊपर एक मरियल-सा बल्ब दिन-रात जलता रहता है। कुछ सीढ़ियाँ नीचे बेसमेन्ट की ओर ले जाती हैं। कुछ ऊपर जाकर मोड़ ले लेती  हैं।

पाँच सीढ़ियों के बाद एक थोड़ी चौड़ी सीढ़ी के दायीं ओर एक दरवाज़ा होगा। मैं उसे चाबी से खोलूँगी और घुसते ही एकदम सिटकनी लगा लूँगी। वही मेरा घर है।

बाहर की यह सीढियाँ और ऊपर भी जाती हैं। दस सीढियों के बाद एक चौड़ी-सी जगह है। मेरी नज़रों की सीमा यहीं तक है। शायद सीढ़ियाँ यहाँ से फिर घूम जाती होंगी। मुझे दिखती नहीं और मुझे दिलचस्पी भी नहीं कि वहाँ कौन लोग रहते हैं।

मुझे इतना मालूम है कि वहाँ से हर वक्त, हर कोने से दनादन चढ़ने-उतरने की आवाज़ें आती रहती हैं। मेरे लिए अजनबी हैं ये आवाज़ें। मैं अक्सर चौंक जाती हूँ इन आवाज़ों से जैसे कोई मेरे बहुत पास से गुज़र रहा हो। किसी अदृश्य व्यक्ति की बेहद  ज़ोरदार उपस्थिति दर्ज कराती ये आवाज़ें मुझे बहुत असहज कर जाती हैं। कभी कह नहीं पाई मैं अजय से। कहूँगी कभी, शायद।

अभी मैने सड़क से मुड़कर बिल्डिंग की पहली ही सीढ़ी पर पैर रखा था कि पीछे से ज़ोर की आवाज़ आई, “हे ब्यूटीफ़ुल ।“

आग लग गई जैसे मुझे। दिखा तो नहीं पर यहीं किसी रेलिंग पर या किसी कार के हुड पर बैठा होगा। उसके हाथ में अक्सर एक कागज़ का भूरे रंग का लिफ़ाफ़ा होता है। उसके अन्दर रखी बोतल से वह कुछ पीता रहता है।

मेरी त्यौरियाँ उभर आईं। चेहरा पहले से भी ज़्यादा कस गया। जैसे सुना ही नहीं। इस अन्दाज़ से मैं आगे बढ़ गई।

वह हँसता हुआ मेरे एकदम सामने आकर खड़ा हो गया।

काला स्याह रंग, घने धुएँ जैसा। छह फ़ुट से भी कहीं ज़्यादा लम्बा क़द। पसीने से चमकता चिपचिपाता चेहरा।

मेरी ग़ुस्से से भरी निगाहें उठ गईं।

बड़ी-बड़ी फैली हुई सफ़ेद सीपियों में नाचती काली पुतलियाँ दिखीं। सफ़ेद चमकते दाँत, एक कान से दूसरे कान तक खिंचे हुए।

मैं वाक़ई डर गई थी। जैसे कहानियों में पढ़ा-सुना कोई दैत्य सामने प्रकट हो गया हो।

“मैं विली हूँ। तुम्हारा पड़ोसी। इसी बिल्डिंग में रहता हूँ।“

मैने कोई जवाब नहीं दिया। जल्दी से पासवर्ड के लिए बटन दबाने लगी। घबराहट में ग़लती कर रही थी। पर्स की जेब से कार्ड टटोला जिसमें नम्बर नोट किया हुआ था।

उसने सड़क पर खड़े-खड़े ही बटन दबा दिए।

दरवाज़ा खुल गया। मैने अन्दर जाते ही दरवाज़ा बन्द कर लिया।

दरवाज़े के पार उसके  ज़ोर-ज़ोर से हँसने की आवाज़ टकरा रही थी।

“तुम इंडियन्स थैंक यू भी नहीं कहते।“  उसने काफ़ी ज़ोर से बोला।

जल्दी से अपॉर्टमेंट में घुसकर मैने सिटकनी लगा ली। पास पड़ी कुर्सी भी खींचकर दरवाज़े  के आगे कर ली। तसल्ली नहीं हुई । फिर कुछ सोचकर एक भारी-सा सूटकेस अल्मारी से बाहर घसीटा और दम लगाकर उसे कुर्सी के साथ टिका दिया।

पलटी तो अब मन में डर की जगह उदासी आकर बैठ गई।

अजय पता नहीं कब लौटेंगे? कहाँ लाकर पटक दिया मुझे। अमरीका के स्वर्ग में?

अजीब-सा स्वर्ग है यह। वह तो नहीं जो मैने सोचा था।

पानी का गिलास पीकर मैने अपनी यूनिफ़ॉर्म बदली। उस पर मेरे नाम का बैज लगा होता है। अब घर आने से पहले ही उतार देती हूँ।

उस दिन यह लगा ही रह गया था।

विली ने बहुत पास झुककर पढ़ लिया- एमीटा।

इस देश में आकर अमिता  ‘ऎमी’ हो गई है। सभी कुछ तो बदल गया है। रिश्ते भी बदल गए। अजय के बड़े भैया ने अजय को तो बुला लिया, कुछ समय तक अपने पास रखा भी। अपने एक कन्वीनियन्स-स्टोर में काम भी दे दिया। पर मेरे आते ही उन लोगों ने कह दिया-अपना बन्दोबस्त ख़ुद करो।

अजय ने बन्दोबस्त कर लिया। इस इलाक़े में यह अपॉर्टमेंट किराए पर लेकर, साजो-सामान के साथ।

“अमरीका है तो अमरीकी कहाँ हैं?” मैने हैरान होकर पूछा था।

“यह भी अमरीकी ही हैं। काले अमरीकी।“ अजय गम्भीर था।

मैं चुप हो गई।  यहाँ ज़्यादातर घुँघराले बाल और काले रंग के सभी शेड्स वाले लोग ही दिखे हैं।

“बस थोड़े दिन की ही बात है।जब तुम्हारी नौकरी लग जाएगी तो कुछ पैसे जोड़कर अच्छे इलाके में चले जाएँगे।“

मैं अजय के चेहरे को तकती रहती हूँ। उस घर को याद करती हूँ जहाँ आठ लोग दो कमरों में बन्द थे। सारा दिन ताने और कमरतोड़ घर का काम।

“नहीं ठीक है यहाँ। मैं ख़ुश हूँ।“ मैं कहती।

अजय विश्वास कर लेते। फिर उमग कर कहते,

“ यह जगह हमारे काम के हिसाब से बहुत सुविधाजनक है। सिर्फ़ पन्द्रह मिनट चलकर मैं स्टोर में पहुँच जाता हूँ।एयर-पोर्ट पास है। तुम्हें भी शटल इसी सड़क के बाहर उतार देती है।“

मैने हल्का-सा  सिर हिला दिया। शायद अजय मुझे कुछ समझा रहे थे। मैने समझने का अभिनय किया।

वह बहुत कुछ मुझे समझाते हैं। जैसे, यहाँ सभी को कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। सिर्फ़ प्राइवेट बी.ए की डिग्री से वह भारत में कोई ढंग की नौकरी नहीं पा सकते थे। वह तो भैया ने बुला लिया तो वह उस छोटे से कन्वीनियन्स स्टोर में मैनेजर बन गए हैं। क्या हुआ अगर सातों दिन , हर रोज़, बारह-चौदह घंटे काम करना पड़ता है।फिर कुछ दिनों में वह अपने स्टोर के मालिक भी तो होंगे न।“

मैं अजय को देखती रहती हूँ। कह नहीं पाती कि मैं अकेला महसूस करती हूँ या कि मुझे डर लगता है। सिर्फ़ सिर हिला देती हूँ।

“तुम नौकरी कर लो। कोई भी। चार पैसे आएँगे और तुम्हारा दिल भी लग जाएगा।“

अजय मालिक से कुछ घंटो की छुट्टी लेकर मुझे ख़ुद नौकरी के इन्टरव्यूह के लिए लेकर जाते। दो जोड़े पैंट-टॉप के दिलवा दिए। हिदायतें देकर बिन्दिया, चूड़ी,झुमके सब उतरवा दिए।

“अब थोड़ी अंग्रेज़ी बोलना सीख जाओ।“ खीजते।

“सॉरी, थैंक्यू, माई नेम इज़ अमिता। आयम मैरिड।“ यह सब तो आता है।

“चलेगा, चलेगा।“ अभी इतनी अंग्रेज़ी ही काफ़ी है। काम करते-करते अपने आप सीख जाएगी।“ अजय के दोस्त मनु पटेल ने कहा था।

बस इतनी ही अंग्रेज़ी से मुझे एयर-पोर्ट पर नौकरी मिल गई। बाक़ी की कमी मैं सिर हिलाकर या मुस्करा कर पूरी कर लेती। संयुक्त परिवार वाले ससुराल में रहने से इतना तो आ ही जाता है।

नौकरी भी अलग तरह की थी। बूढे, बीमार और असमर्थ यात्रियों की व्हील चेयर खींचने की। उन्हें सम्भाल कर उनके  निर्धारित गेट तक पहुँचाना होता। मुझे लगता कि मैं लोगों की मदद कर रही हूँ। मेरा मन रमने लगा।

एयर-पोर्ट की शटल एक जगह पर रुकती और हम सभी लोगों को काम पर ले जाती। शिफ़्ट ख़त्म होने पर वहीं छोड़ देती। मेरे अलावा पाँच-छह और लड़कियाँ भी होतीं। हम सभी युवा थीं। ज़्यादातर लड़कियाँ स्पैनिश बोलतीं। योलेंडा चिली से थी। गज़ैल अर्जेन्टीना से। नाडिया गोरी थी- पोलेंड से, पर अंग्रेज़ी वह भी नहीं बोल पाती थी। बस आलियाह ही थी जो अलग तरह से अंग्रेज़ी बोलती। उसके हाव-भाव में एक दबंगपना था। वह मेरे ही पड़ोस में रहती है। यह बातें मैं धीरे-धीरे जान गई।

रोज़ हम सब को इकट्ठा करके शटल एयरपोर्ट पहुँचा देती।

लोगों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाते, भीड़ में से व्हील चेयर के लिए रास्ता बनाते अक्सर हम लोग एक दूसरे के सामने पड़ जाते। हम मुस्कराते। यह मुस्कान अलग तरह की थी। अपनेपन की, पहचाने जाने की।

रास्ते में शटल में पास बैठी लड़की से टूटी-फूटी अंग्रेज़ी, कुछ अपनी भाषा के शब्द और कुछ हाथों और चेहरे की भंगिमाओं से हमारा वार्त्तालाप होता। सबके नाम के बिल्ले उनकी वर्दी पर लिखे होते। हम एक-दूजे के नाम जान गईं।

“नाइस वैदर, ब्युटीफ़ुल हेयर, युअर पर्फ़्यूम  इज़ गुड।“ बस इन टुकड़ों में बातचीत हो जाती। हम औरतों के लिए संप्रेषण करना कोई मुश्किल काम नहीं होता।

“मैरिड?”

“नो, माई हस्बैंड लेफ़्ट मी।“

“ओह! सॉरी।“

“यू?”

“यस्स।“

मैं बहुत कुछ जान रही थी। जान रही थी इस नई दुनिया को।

 इस एक कमरे के स्टुडियो अपॉर्टमेंट में छोटा-सा किचन था और साथ लगा बाथरूम।

काफ़ी था मुझ अकेली के लिए। अजय तो बस सोने आते हैं। उनका और मेरा सामान भी था।उस हिसाब से इस वक्त यही था हमारा घर।

सड़क की तरफ़ खुलती बड़ी-सी खिड़की थी। मेरा मतलब खुलती नहीं थी पर हल्की सी कमरे की हद से बाहर बढ़ी हुई थी। एक छज्जे की तरह। सड़क से बस इतनी भर ऊँची कि लगता कोई उछलकर उसे छू सकता है। उस पर पहले से ही एक झीना पर्दा पड़ा था। मैं अपने शरीर को खिड़की वाली दीवार की ओट कर लेती ताकि मैं किसी को न दिखूँ। अपना चेहरा मैं खिड़की के पास ले आती ताकि मैं सबको देख सकूँ।

मेरी आँखों के आगे एक दुनिया चलती रहती। दायीं ओर लड़के बॉस्केट-बॉल खेलते और ठीक उसके सामने, कोने में छोटी-सी दुकान थी। जिसकी खिड़की पर “ओपन” की रोशनी जगमगाती रहती। लोग वहाँ सिग्रेट, सोडा, अख़बार, बीयर,कैंडी और चिप्स जैसी चीज़ें लेने के लिए घुसते। दूध, अंडे और ब्रैड जैसी ज़रूरी चीज़ें भी वह रखता था। युवा लोगों का काफ़ी आवागमन रहता वहाँ। मुझे वह अपने देश की छोटी सी गुमटी की तरह लगती। एक दिन मैने उसके मालिक को बाहर खड़े होकर किसी पर चिल्लाते देखा। वह छोटे क़द का गोरा, गोल-मटोल इटालियन- सा लगा।

मेरी इमारत के सामने ज़रा सी दूरी पर, बायीं ओर कुछ था जहाँ दिन में मुर्दनी छायी रहती पर रात को वहाँ बड़े लोगों का आना-जाना रहता। एक सीढ़ी के बाद अन्दर जाने का दरवाज़ा था। जब खुलता तो ज़ोर-ज़ोर से एक अलग तरह के गाने की आवाज़ आती।

दरवाज़े के बाहर, छतरीनुमा एक हरे रंग की झालर थी जिस पर सफ़ेद रंग से लिखा था-‘ टैवर्न’।

अजय ने बताया यह ‘बार’ है,शराबघर है। पास भी नहीं जाना।

मैने सिर हिलाया। समझ गई- मधुशाला है यह।

मैं काम से आने के बाद या कभी भी ख़ाली वक्त में यहाँ खड़ी होकर, इस स्ट्रीट की धड़कन महसूस करती रहती हूँ।

………….

अभी रेफ़्रीजरेटर में खाने-पीने का सामान रखते हुए हाथ रुक गए।  थोड़ी देर पहले हुई घटना से उखड़ी हुई थी।

घर लौटते वक्त , शटल से उतरते ही सामने वाले बड़े ग्रौसरी स्टोर में घुस गई। सामान उठाते समय ध्यान ही नहीं दिया कि थैले इतने भारी हो जाएँगे।

किसी तरह रुकते-रुकाते घर के पास पहुँची तो फिर वही आवाज़।
“हाय ब्यूटीफ़ुल!”

मैं सुन्न।

“लेट मी हेल्प यू” कहकर विली आगे बढ़ आया। लगभग मेरे हाथों से थैला छीनता हुआ।

मैं छिटककर पीछे हट गई।

उसने आगे बढ़कर दरवाज़ा खोला और उस को पकड़े हुए ही अन्दर की ओर हो गया। मेरे अन्दर आने का इन्तज़ार करता हुआ।

मेरे पाँव वहीं जम गए। दिमाग में ख़तरे की एक अदृश्य बिजली कौंधी। अगर मैं अन्दर गई तो यह भी होगा। अन्धेरी ड्योढ़ी।

मेरे चेहरे ने शायद मेरी चुगली कर दी।

“कम ऑन। आयम नॉट गोइंग टू हर्ट यू।“

उसके चेहरे पर अपमान का दर्द था या नाराज़गी। मैं समझने की हालत में नहीं थी।

वह दरवाज़ा पकड़े-पकड़े बाहर निकल आया।

मैं अभी भी वहीं जमी हुई  थी।

उसने दरवाज़ा पूरा खोल दिया और एक तरफ़ हो गया।

मैं हिम्मत करके अन्दर गई। उसने बिना अन्दर आए ही दरवाज़ा बाहर से वापस बन्द कर दिया।

मैं अपने अपॉर्टमेंट में आई तो माथा पसीने से भीगा था।

खाने-पीने की चीज़ें समेटती हुई सोच रही थी कि क्या अजय को कहूँ कि जल्दी से इस जगह से निकलो।

बाहर सड़क पर चीखने-चिल्लाने की आवाज़ें असामान्य रूप से तेज़ हो गईं।

होगा कुछ। मैं खाना बनाने में व्यस्त होने की कोशिश करती रही।

पुलिस सॉयरन की दिल दहला देने वाली आवाज़। लाल-नीली रोशनियों की कौंध मेरी खिड़की पर ज़ोर-ज़ोर से दस्तक दे रही थी।

मैने घबराकर अपने को दीवार की ओट में कर लिया। डरते हुए खिड़की से बाहर झाँका।

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सिग्रेट-कैंडी स्टोर का दरवाज़ा फटाक खुला था। वह इटालियन मालिक हाथों को यूँ हिला रहा था कि मुझे लगा वह किसी बात के लिए “नहीं-नहीं” कह रहा है।

सड़क पर लोगों की भीड़ थी। चिल्लाते हुए लोगों की।

पुलिस की काली गाड़ी सड़क के एक ओर खड़ी थी। उसकी  छत के ऊपर लगा बल्ब घूम-घूम कर, दूर तक लाल और नीली रोशनी की लपलपाती लपटें फेंक रहा था।

उसी तिलिस्मी रोशनी में मुझे उस भयानकता का केन्द्र दिखा- बिलकुल बीच सड़क, ज़मीन पर औंधा पड़ा हुआ आदमी।

एक तगड़े और गोरे पुलिस अफ़सर ने उसकी गर्दन और पीठ को अपने घुटने से दबाया हुआ था। ज़मीन पर औंधा पड़ा शख़्स पूरी तरह से उसकी क़ाबू में लगा। शायद उस आदमी में हिलने-डुलने की हिम्मत ही न बची हो।

दूसरा अफ़सर उसकी बाँहे पीठ पर बाँधकर हथकड़ी पहनाने की ड्यूटी में व्यस्त था।

आलियाह को मैने हताशा में छटपटाते हुए देखा। हाँ, वही थी।

“उसे छोड़ दो। वह अच्छा लड़का है। उसने कुछ नहीं किया।“

इतने में दो और पुलिस की गाड़ियाँ आकर पहली वाली गाड़ी के पीछे लग गईं।

अब एक और पुलिस वाला थोड़ा गुस्से और आक्रमण जैसी मुद्रा में आलियाह की ओर बढ़ा। पता नहीं उसने क्या कहा कि वह रोती हुई पटरी पर दूर जाकर खड़ी हो गई।

चारों तरफ़ लोग थे। शायद उस झुंड में कुछ लोग सामने वाली ‘बार’ से भी निकल कर शामिल हो गए। लोग खड़े थे पर पुलिस वालों से एक दूरी बनाकर। मैंने ऊपर से कुछ लोगों को अपने फ़ोन को ऊँचा करते हुए देखा। शायद वे इस घटना का वीडियो बना रहे थे।

ज़मीन पर लेटा हुआ आदमी,जीते- जागते इन्सान की तरह नहीं बल्कि एक निर्जीव तख़्ते की तरह  निश्चेष्ट था। जैसे किसी तेज़ बारिश में बहकर यूँ ही कहीं से आ गया हो। पुलिस अफ़सर ने उसकी  बाँह से पकड़कर उसे खड़ा किया। वही लाल बिना बाहों की बनियान, जो मैं अक्सर देखती हूँ। इस बार लाल रंग की कई लकीरें उसके जिस्म पर भी थीं। पता नहीं क्यों मुझे खून से लिखी गई ग्राफ़िटी का ध्यान आया। जो अक्सर ओवर-पास के नीचे या कहीं उजड़ी हुई इमारतों की दीवारों पर चित्रित होती है। लोग उसे ब्लैक आर्ट से जोड़कर देखते हैं। इस वक्त तो यह ज़ख़्मकारी इन गोरे अफ़सरों ने की थी।

वह आदमी हिला। अब उस लड़के का चेहरा मेरे सामने था।

मैं सिहर गई। यह तो कोफ़ी ही था-आलिजाह का भाई।

वह नुक्कड़-स्टोर वाला इटालियन,  बेहद परेशानी में हाथ फेंकता हुआ इधर-उधर घूम रहा था। उसके चेहरे पर अपराध-बोध और बेबसी का भाव साफ़ नज़र आ रहा था।

“ ऑफ़िसर, प्लीज़ लेट हिम गो।“  वह दूर से ही गिड़गिड़ाता लगा। पास आकर कहने का साहस न उसमें था और न किसी और में।

पुलिस अफ़सर न कुछ सुन रहे थे और न ही देख। वह कड़क थे। मुस्तैदी से अपना फ़र्ज़ निबटाने में व्यस्त।

एक पुलिस अफ़सर ने कोफ़ी को वैन की पिछली सीट पर धक्का देकर दरवाज़ा बन्द कर दिया।पहले वाले दोनों अफ़सर अगली सीट पर कूदे और झपाटे से गाड़ी दौड़ाकर निकल गए।

पुलिस की सभी गाड़ियाँ लौट गईं। बस धुएँ की एक लकीर ने उनका थोड़ी देर तक पीछा किया। अचानक सड़क एकदम वीरान हो गई।

भीड़ से एक मरियल –सा हाहाकार उठा। एक सामूहिक रुदन जो आग नहीं था बस घना धुआँ जो बेबसी की तरह स्याह था।
पता नहीं क्यों मुझे लगा कि यह भीड़ तमाशबीनों की नहीं है। यह कोफ़ी के अपने लोग हैं। जिन्हें कोफ़ी की चिन्ता है। शायद वे आपने लिए भी चिन्तित हैं। डरे हुए लोग। धीरे-धीरे सभी  सड़क के धूमिल अन्धेरे में विलीन हो गए।

…………….

मुझे उम्मीद भी नहीं थी पर सच में आलियाह काम पर जाने के लिए शटल में नहीं आई।  मन सारा दिन काम पर नहीं लगा। यही ख़्याल मन को छीलता रहा कि कल रात से उसका भाई पुलिस की हिरासत में है।

लौटते वक्त, हर रोज़ की तरह शटल ने मुख्य सड़क पर उतारा। आज मैं अकेली ही उस स्ट्रीट पर चल रही थी, बिना आलियाह की ओट के। खाली और बेहद उदास सड़क। रास्ते में बॉस्कट-बॉल का  खम्भा वैसे ही खड़ा था, अकेला और बेरंग । लड़के पता नहीं कहाँ गुम हो गए।

सिग्रेट-कैंडी  की दुकान पर “क्लोज़” का बोर्ड लटका था बिना लाल चमकती बत्तियों के। सड़क की रौनक को जैसे कोई बुहार कर ले गया।

लग रहा था कि यहाँ कोई हादसा हुआ है।अगर मातम की कोई गंध होती है तो वह इस वक्त हवा में घुली हुई थी।

मैने धीरे-धीरे चलते हुए आलियाह और कोफ़ी के घर की ओर चोर-नज़रों से देखा। वहाँ अन्धेरा था। मलिन सा। डरावना और मनहूस।

सुनसान सड़क पर यूँ ही दो-तीन कुत्ते कूड़ेदान के पास हड्डियाँ चिंचोड़ते नज़र आए।

डर मैं आज भी रही थी। आस-पास कोई  इन्सान नहीं दिखा। वातावरण में जो सन्नाटा था बह सुकून देने वाला तो क़तई नहीं था। क़ब्रिस्तान जैसी भुतही खामोशी।

अगले दिन फिर मुझे काम पर जाते हुए उसी सड़क पर से गुज़रकर शटल का इंतज़ार करना था।लगा कल शाम लौटते वक्त जिस रास्ते से चलकर आई थी अब फिर वहीं, अपने ही पाँवों के निशानों के ऊपर पाँव  रखकर जा रही हूँ।

अपना निर्लिप्तता का मुखौटा मैं घर पर ही भूल आई।उस सड़क से गुज़रते हुए मैं वही आवाज़ें ढूँढ रही थी जो दो दिन से पता नहीं कहाँ गुम थीं।

लगा कि कहीं से आवाज़ों की आहट आई है। मेरी सारी इन्द्रियाँ  वहीं घूम गईं। कोई धीमी-धीमी आवाज़ थी इसी गली में, जिसका पहले कभी अस्तित्व ही नहीं था।

आलियाह के घर के बाहर बहुत से लोग खड़े थे। चुपचाप सिर झुकाए हुए। मेरे पैर मुझे वहीं ले आए।

घर के अन्दर से चीखों की आवाज़ आई। कलेजा चीरकर दर्द का लावा उफना हो जैसे।

मैने घबराकर पास खड़े लड़के की ओर देखा। उसके होंठ काँप रहे थे।लगा वह अभी रो पड़ेगा।

“आलियाह …?” मैं बस इतना ही कह पाई।

“आज कोफ़ी पुलिस की हिरासत में मर गया।“

मुझे अपनी साँस रुकती–सी लगी। वह किशोर, उसका चेहरा मेरी आँखों के सामने घूम गया। बॉस्कट बॉल के टप्पे मेरे दिमाग में बज रहे थे, हथौड़ों की तरह। अदृश्य हथौड़े। जो कुचल गए जिस्म के साथ- साथ रूह भी।

…….

एक हफ़्ते बाद आलियाह काम पर आई। बेहद चुप।

वह शटल पर मेरे साथ बैठी थी।

“सॉरी” कहकर मैने अपना हाथ उसके हाथ पर रख दिया।

“तुम्हें सॉरी होने की कोई ज़रूरत नहीं। हम पैदा होते ही इसलिए हैं कि यूँ ही कीड़े-मकोड़ों की तरह मर जाएँ।“ उसने अपना हाथ झटककर हटा लिया।

शटल में कोई कुछ नहीं बोला।

लौटते वक्त बाहर बारिश होकर हटी थी। अब धूप निकल आई।

“इ्न्द्रधनुष।“ योलैंडा ने खिड़की से बाहर झाँकते हुए सबका ध्यान बँटाया।

हम सभी अपनी-अपनी खिड़की से बाहर देखने लगीं ।

“कितने सुन्दर रंग। हमारी तरह। जैसे हम सब हैं, अलग-अलग रंग की।“ गज़ैल ने कविताई झाड़ी।

“एक रंग इसमें गुम है। काला रंग। हमारा रंग।“ आलियाह की आवाज़ में आक्रोश था या रुदन। समझ पाना मुश्किल था।

सब अपनी-अपनी सीटों पर बैठे बाहर देख रही थीं। जब कुछ कहने को नहीं होता तो हम ज़रा ज़्यादा ही घूर कर चीज़ों को देखने का अभिनय करने लगते हैं।

हमारा स्टॉप आने पर आलियाह मेरे साथ ही उतरी। आज वह मेरे आगे नहीं चल रही थी। मैं ही धीमे होकर उसके साथ चलने लगी।

हो सकता है उसने भी मेरी तरह स्ट्रीट पर सब जगह लगे हुए पोस्टरों  को देखा हो।

“ब्लैक लाइव्स मैटर।“

मैने संकोच के साथ उसकी ओर देखा। उसके चेहरे पर दुख का स्थायी भाव था। वह उसमें कोई दरार नहीं पड़ने दे रही थी।

उसका घर आ गया। वह इन पोस्टरों से पटा पड़ा था। ऊपर वाले घर की बॉल्कनी से भी एक बैनर लटका हुआ था- “ब्लैक लाइव्स मैटर”।

वह मुड़ी पर घर के भीतर नहीं गई। पटरी पर लगे बॉस्कट-बॉल के खम्भे से  लिपट गई।

कोफ़ी के दोस्त शायद वहीं कहीं कोनों में खड़े थे। आकर उन्होंने आलियाह के पास घेरा बना लिया।वह शायद इससे ज़्यादा कुछ कर नहीं सकते थे। कोफ़ी को नहीं लौटा सके पर उसकी बहन के गिर्द चुपचाप सिर झुकाए खड़े हो गये। आलियाह आत्मीयता के उस घेरे के भीतर सुबक रही थी, बहु्त धीमे-धीमे।

मैं पाँव घसीटती हुई आगे बढ़ गई। आज के स्थानीय अख़बार में इस घटना की सारी ख़बर छपी थी। मैने सिग्रेट-कैंडी स्टोर की ओर हिकारत से देखा। इसी ने कोफ़ी द्वारा चोरी किए जाने के शक़ में पुलिस को बुलाया था।

बस इतनी सी बात। एक शक़, एक शिक़ायत और पुलिस को मौक़ा मिल गया एक काले युवक के साथ क्रूरता की हवस पूरा करने का।

मन बेहद  कड़वा हो गया। आँखें धुँधला रही थीं उस किशोर की यातना के बारे में सोचकर जिसका एक ही अपराध था, उसकी त्वचा का रंग । मैं परिचित हूँ इन रंग और जाति-भेद के नासूरों से। सोचा था वह सब अब मेरा अतीत है। उन्हें पीछे छोड़ आई, लेकिन वे मेरा पीछा नहीं छोड़ रहे। यहाँ भी नहीं। इतने विकसित कहलाने वाले देश में भी नहीं। मेरी ही स्ट्रीट में  सामने से आकर कोफ़ी को घेर लिया।

अपने ध्यान में चली जा रही थी। ‘बार’ के बाहर खड़े कुछ आदमियों के झुँड की ओर मैने ध्यान ही नहीं दिया।

अपनी बिल्डिंग की ओर मुड़ी तो पीछे से आवाज़ आई, “हाय स्वीटहार्ट”।

जलकर मुड़ी तो विली कहीं नहीं था। यह आवाज़ भी उसकी नहीं थी।

‘बार’ के बाहर खड़े आदमियों में से एक आदमी मेरी ओर बढ़ आया। ये लोग काले नहीं थे।पूरी तरह गोरे भी नहीं लग रहे थे। पता नहीं कहाँ से आए थे।मैं जल्दी-जल्दी बाहर की सीढियाँ चढ़ने लगी।

उसने पीछे से मेरी बाँह पकड़ ली।

“डोन्ट टच मी।“ मैं गुस्से में थी या डरी हुई। पर काँप रही थी। बाँह छुड़ाने की कोशिश करने लगी।

वह ढीठ मुस्कुरा रहा था। मैं दहशत में। यह अचानक!

“लीव हर अलोन” विली चीते की तरह लपक कर आया था।

“आई से लेट हर गो।“ विली ने उसके हाथ से मेरी बाँह छुड़ा दी।

“लगता है,तेरी कुछ लगती है।“ कहकर उसने विली के मुँह पर एक ज़ोरदार घूँसा जड़ दिया।

“हाँ, लगती है।“ कहकर विली ने उसकी बाँह पकड़कर पीछे की ओर मोड़ दी।

उस आदमी ने घूमकर विली की टाँगों के बीच वार किया।

विली कराहकर ज़मीन पर गिर पड़ा।

तब तक मैं दौड़कर दरवाज़ा खोल चुकी थी। फ़ोन से ‘नौ-एक-एक नम्बर’ डॉयल करने जा ही रही थी  कि विली चिल्लाया-“क्या कर रही है?”

“पुलिस, कॉलिंग पुलिस।“ मैं अनियंत्रित काँप रही थी।

“डोन्ट! स्टुपिड डोन्ट कॉल पुलिस।“

विली उन दो-तीन आदमियों के नीचे दबा मार खा रहा था। उसे मार से ज़्यादा मेरा पुलिस को फ़ोन करना संत्रास दे गया।

“गो…” वह फिर मेरी तरफ़ देखकर चिल्लाया।

मैं भागकर अपने अपॉर्टमेंट में घुस गई।

खिड़की से देखा। विली अकेला था और वह तीन। एक के हाथ में  बेसबॉल का बल्ला था।

“यू निग्गर, यू स्लेव, यू ब्लैक पिग….।“ वह उसे हर वार के साथ गालियाँ दे रहे थे।

विली के हाथ उठे थे अपने बचाव के लिए। उसकी काली देह के ऊपर खून के धब्बे और धारियाँ अपनी भयानकता के साथ फैलते जा रहे थे।

मैं बेबस, हाथ में फ़ोन लिए खड़ी थी जिसको डायल करने के लिए विली ने मना किया था।

मुझे कुछ अपनी स्ट्रीट के लड़के  विली के पास भागकर आते दिखे। यह कोफ़ी के दोस्तों का झुँड था। वे हाथों मे बेसबॉल के बल्ले उठाए हुए थे, आक्रमण की मुद्रा में।

वे तीनों आदमी भागे। एक ने जाने से पहले विली के पेट में घृणा से आख़िरी लात मारी।

लड़के पास आते इससे पहले ही वे सड़क के घुमाव से ओझल हो गए।

उन लड़कों ने विली को उठाया।वह लड़खड़ाया। फिर सम्भल गया। अपनी आस्तीन से मुँह का खून पोंछा।फिर वहीं सड़क पर थूक दिया। खून का एक बड़ा सा धब्बा अजीब सी आकृति बनाता ज़मीन पर फैल गया।

लड़के कुछ पूछ रहे थे।

विली ने “कुछ नहीं”, “बस ऐसे ही” के भाव से सिर हिलाया।

मैं खिड़की से सब देख रही थी। दीवार की ओट में हो गई। पता नहीं क्या-क्या मन में उमड़ा।

सब मेरी वजह से। मैं विली के लिए कुछ भी नहीं कर सकी। न ही कर पाऊँगी।

वह हमारी बिल्डिंग की तरफ़ मुड़ा।  जान गई कि वह बाहर का दरवाज़ा खोल रहा होगा।

मैं अपने अपॉर्टमेंट का दरवाज़ा खोलकर खड़ी हो गई।

वह रेलिंग पकड़कर धीरे धीरे अपने शरीर को उठा रहा था।

मेरे घर के सामने आकर रुक गया। वह इस वक्त बिलकुल मेरे पास खड़ा था।

मैने सिर उठाकर उसे भरपूर नज़रों से देखा।  कितना कुछ घुमड़ रहा था।

“तुम तो इन्द्रधनुष से गुम सबसे खूबसूरत रंग हो।”  कह नहीं पाई।

नम आँखो से देखती रही। शायद मेरी ठुड्डी काँपी। होंठ थरथराए थे। सच में मुझे शुक्रिया कहना नहीं आता।

विली ने अपना दायाँ हाथ मेरे सिर पर रख दिया। मेरा सारा सिर उसकी हथेली के नीचे स्थिर था। उसका हाथ जैसे काँपता हुआ मोरपँख। यूँ ही सिहरता रहा।

“अन्दर जाओ और दरवाज़ा बन्द कर लो।“ उसने कोमलता से कहा।

मैं यूँ ही खड़ी रही।

उसके बदन में कहीं दर्द की लहर उठी थी। उसने कराहकर रेलिंग पकड़ ली। थोड़ी देर के लिए उसकी पलकें बन्द हो गईं।

अपने को घसीटकर वह ऊपरवाले घुमाव पर जाकर रुका।पलटा।

मैं अभी भी वहीं, वैसी ही खड़ी थी, उसे ताकती हुई।

उसके चेहरे के भाव बदले।

“भीतर जाओ।“ वह गुर्राया।

मैं जल्दी से एक कदम पीछे हटी। दरवाज़ा बन्द करके सिटकनी लगा ली।

पीठ दरवाज़े से टिकाकर खड़ी हो गई।

आँखें बन्द थीं पर चेहरा भीगता जा रहा था।

पता नहीं यह मुझे क्या हो गया।

…

Anil Prabha Kumar

दिल्ली में जन्मी अनिल प्रभा कुमार आजकल अमेरिका के न्यू जर्सी में रहती हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी ऑनर्स और एम.ए तथा आगरा विश्वविद्यालय से “हिन्दी के सामाजिक नाटकों में युगबोध” विषय पर पी एच.डी. कर चुकीं अनिल प्रभा कुमारम विलियम पैट्रसन यूनिवर्सिटी, न्यू जर्सी में हिन्दी भाषा और साहित्य पढ़ाती हैं. अन्तर्राष्ट्रीय समाचार संस्था “विज़न्यूस” में सात वर्षों तक तकनीकी- संपादक के रूप में काम करने के अलावा वह वॉयस ऑफ अमेरिका के न्यूयॉर्क संवाददाता के रूप में कार्य करते हुए मदर टेरेसा, सत्यजित रे और पंडित रविशंकर जैसी विभूतियों से साक्षात्कार कर चुकी हैं.  उनका कहानी संग्रह बहता पानी और कविता संग्रह उजाले की कसम का प्रकाश हो चुका है.  उन्हें ‘झानोदय पत्रिका के ‘नई कलम विशेषांक में अपनी पहली कहानी ‘खाली दायरे’ पर प्रथम पुरस्कार मिला था. अभिव्यक्ति कथा महोत्सव में “फिर से” कहानी भी पुरस्कृत हो चुकी है.

संपर्क- aksk414@hotmail.com

कहानीः चौबीस किलो का भूत
कहानीः कोविड पॉजीटिव
1882 में छपी एक अद्भुत किताब जिसकी लेखिका का पता नहीं
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Vivek

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