अनुराग अनंत की एक प्रेम कविता:
तुम मुक्तिबोध की कविता की तरह थीं
समझने में कठिन
लेकिन हर मोड़ पर मोह लेने वाली
तुम मुझे बात बात पर चाक पर चढ़ा देती थीं
मेरी मिट्टी में अलग अलग मूर्तियाँ उभरने लगती थीं
मैं कील की तरह अपनी छाती में धँसता था
और ख़ुद के खोल को ख़ुद में टिका कर टांग देता था
एक बात बताऊँ बहुत दर्द होता था
इस क्रिया में
ये ऐसा था कि मेरे कानों में जलमृदंग बज रहे हों
और मैं हंसते हुए अपनी खाल उतार रहा हूँ
और कील तो मैं था ही
इस दोषपूर्ण जगत में मैंने दोष देखना नहीं सीखा था
इसलिए कमोबेश अंधा ही था मैं
इस बात को मैं जानता था कि देखे बिना भी चीज़ें जानी जा सकती हैं
आवाज़ को टटोल कर, आत्मा को छू कर और किसी के भीतर उतर कर
तुम जानती हो तुम्हारे भीतर बहुत नम मिट्टी है
शायद बहुत रोई हो तुम भीतर भीतर
मैं गंगा के किनारे का हूँ
इसलिए नम माटी से हृदय लगा बैठता हूँ
मेरी स्मृतियों के पाँव
और मन की नाव उसी तट पर टिके हैं
जहां बैठ कर तुम रोई हो।।
अनुराग अनंत, बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर केन्द्रीय विश्वविद्यालय में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग में शोध कर रहे हैं. रहने वाले इलाहबाद के हैं. गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय से एमफिल किया है. समाचार पत्रों और प्रमुख न्यूज़ पोर्टल्स के लिए लेख व रिपोर्ट लिखते रहे हैं. उनकी कविताएं और कहानियां जानी-मानी पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं और कई मंचों से पुरस्कार पा चुकी हैं.