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Home Literature

अच्युतानंद मिश्र की कविताएं

NRI Affairs News Desk by NRI Affairs News Desk
August 28, 2021
in Literature
Reading Time: 6 mins read
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अच्युतानंद मिश्र, कविता

Image by Alejandro Piñero Amerio from Pixabay

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अच्युतानंद मिश्र कविता और आलोचना दोनों विधाओं पर बराबर जोर की पकड़ रखते हैं. यहां उनकी चार कविताएं उनके रचनाकर्म की एक झलक मात्र हैं, जहां अक्सर जिंदगी को समझने के लिए वह कुदरत के करीब जाते हैं और वहां से कुछ पहेलियां सुलझाने की कोशिश करते हैं.

चिड़ियां की आंख भर रोशनी

पहाड़ों को पता है

अपनी ऊंचाई का

समुद्र जानते हैं

अपना विस्तार

नदियों को मालूम है

सरलता का महत्व

फूल जानते हैं

रस को भीतर बचाए

रखने का हुनर

दरवाजे अपनी छाती पर

थामें रखते हैं विपत्ति

सड़कें बनाए रखती हैं

दुनिया के वृत्त को सपाट

पहुंचने और छूने की इच्छा

बनाती है आकाश

सोचने के विस्तार ने

खोजा क्षितिज

रोशनी में छिपी है सूक्ष्मता

अंधकार ने बचायी अनिश्चितता

मृत्यु ने सिखाए खेल के नियम।

चुंबन ने बचाया स्पर्श

हाथों ने निर्मित किया साथ।

इन सबसे मिलकर बना आदमी

आदमी का दिमाग

आदमी का दिल

आदमी का एहसास

जो करता है हत्या

पीता है रक्त

और बहुत दुर्लभ क्षणों में

चिड़ियां की आंख भर रोशनी में

लिखता है कविता

2

वो सुबह कभी तो आएगी

उफन रहा है समुद्र

उद्दाम वेग से

बह रही हैं नदियाँ

अब भी.

चिड़ियों की नींद पर

तिनके का दबाव मौजूद है

अब भी दृश्य में

एक नाराज़ आदमी

बचा हुआ है,

पानी का ग्लास

अपने भीतर लिए हुए है

वही अदृश्य उदासी

ढुलकते आंसुओं के बावजूद

आँखों की बेचैनी

पढ़ लेते हैं लोग

अब भी

नींद में बुदबुदाते हुए

हुक्म दे रहे हैं पिता

खाना बीच में छोड़कर

भागी जा रही है माँ

तारीख के बदलने से पहले

रात काले चादर से

ढांप लेती है अपना चेहरा,

बेचेहरा लोग रात में

उघारते हैं अपना चेहरा

अब भी

शाम को काम से घर लौटने का

आनंद बचा हुआ है,

अब भी दुनिया के पहाड़ों से

उतरते हुए लोग

जलाते हैं माचिस

खींचते है कस बीड़ी का

देते हैं एक मोटी सी गाली

एक बच्चा

बजाता है साइकिल की घंटी

और निश्छल मुस्कुरा देता है

एक स्त्री स्कूटर के शीशे में 

देखती है अपना चेहरा

और सुन्दर हो जाती है

अब भी लोग प्रेम करते हैं

और तबाह हो जाते हैं 

संगीत ने अब भी थामे रखा है

दृश्य अब भी खींचते हैं

ट्रेन की खिड़की से बाहर

अत्याचारी के कदमों की

थाप सुन लेते हैं लोग

बाँध लेते हैं मुट्ठी

अब भी  

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रेडियो पर बजता है गीत

वो सुबह कभी तो आएगी 

3

बड़े कवि से मिलना

बड़े कवि से मिलना हुआ

वे सफलता की कई सीढियाँ चढ़ चुके थे

हम साथ-साथ उतरे

औपचारिकतावश उन्होंने मेरा हालचाल पूछा

फिर दो कदम बढ़े

और कहा चलता हूँ

हालाँकि हम कुछ दूर साथ साथ चल सकते थे

हम लोग एक ही ट्रेन के अलग डब्बों पर सवार हुए

उस दिन ट्रेन एक नहीं दो रास्तों से गुजरी

4

जाल, मछलियाँ और औरतें

वह जो दूर गांव के सिवान पर

पोखर की भीड़ पर

धब्बे की तरह लगातार

हरकत में दिख रहा है

वह मल्लाह टोल है

वहीँ जहाँ खुले में

जाल मछलियाँ और औरतें

सूख रहीं हैं

आहिस्ते –आहिस्ते वे छोड़ रहीं हैं

अपने भीतर का जल –कण

मछलियों में देर तक

भरा जाता है नून

एक एक कर जाल में

लगाये जाते हैं पैबंद 

घुंघरुओं की आवाज़ सुनकर

नून सनी मछलियाँ काँप जाती हैं

मछुवारिने जाल बुनती हैं 

पानी की आवाज़ देर तक

सुनते हैं लोग और

पानी के जगने से पहले 

औरतें पोंछ लेती हैं पानी

पानी के अंधकार में वे दुहराती हैं प्रार्थना

हे जल हमें जीवन दो

फिर उसे उलट देती हैं

हे जीवन हमें जल दो

मछलियाँ बेसुध पड़ी हैं नींद में

मछुवारों के पैरों की धमक

सुनती हैं वे नींद में

नींद जो कि बरसात के बूंदों की तरह

बूंद- बूंद रिस रही है

बूंद-बूंद घटता है जीवन

बूंद-बूंद जीती हैं मछुवारिने

कौन पुकारता है नींद में

ये किसकी आवाज़ है

जो खींचती है समूचा बदन

क्या ये आखिरी आवाज़ है

इतना सन्नाटा क्यों है पृथ्वी पर ?

घन-घन-घन गरजते हैं मेघ

झिर-झिर-झिर गिरती हैं बूंदें 

देर तक हांड़ी में उबलता हैं पानी

देर तक उसमें झांकती है मछुवारिने

देर तक सिझतें हैं उनके चेहरे 

मछलियों के इंतज़ार में बच्चे रो रहे हैं

मछलियों के इंतज़ार में खुले है दरवाज़े

मछलियों के इंतज़ार में चूल्हों से उठता हैं धूआं

मछलियों के इंतज़ार में गुमसुम बैठी हैं औरतें

मल्लाह देखतें हैं पानी का रंग

जाल फेंकने से पहले कांपती है नाव

मल्लाह गीत गाते हैं

वे उचारते हैं

मछलियाँ, मछलियाँ, मछलियाँ

उबलते पानी में कूद जाती हैं औरतें

वे चीखतीं हैं

मछलियाँ ,मछलियाँ ,मछलियाँ

बच्चे नींद में लुढक जाते हैं

तोतली आवाज़ में कहतें हैं

मतलियां ,मतलियां ,मतलियां 

उठती है लहर

कंठ में चुभता है शूल

जाल समेटा जा रहा है

तड़प रही हैं मछलियाँ

उनके गलफ़र खुलें हैं

वे आखिरी बार कहती हैं मछलियाँ

मल्लाहों के उल्लास में दब जाती है

यह आखिरी आवाज़

Achyutanand Mishra

कविता और आलोचना दोनों में समान रूप से सक्रिय अच्युतानंद मिश्र का जन्म 1982 में हुआ. कविता संग्रह आँख में तिनका एवं उत्तर मार्क्सवादी चिंतकों पर केंद्रित विचार और आलोचना की पुस्तक बाज़ार के अरण्य में प्रकाशित.
प्रेमचंद: साहित्य संस्कृति और राजनीति शीर्षक से प्रेमचंद के प्रतिनिधि निबंधों का संकलन।
साहित्य की समकालीनता शीर्षक के अंतर्गत साहित्य और समय के अन्तर्सम्बन्धों पर केन्द्रित लेखों का संकलन एवं संपादन
कविता के लिए वर्ष 2012 में शब्द साधक युवा सम्मान एवं वर्ष 2017 में भारतभूषण अग्रवाल सम्मान.
सम्प्रति: दिल्ली विश्वविद्यालय के इन्द्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय में अध्यापन.  MOBILE -9213166256mail : anmishra27@gmail.com

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