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Home Literature

यायावरीः बिन्सर डायरी

NRI Affairs News Desk by NRI Affairs News Desk
August 5, 2021
in Literature
Reading Time: 2 mins read
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मंज़िल को ध्यान में रखकर की गई यात्राएं निहायत ही उबाऊ होती हैं. मकसद मंज़िल नहीं मंज़िल तक ले जाने वाला रास्ता, उस रास्ते को तय करती नज़र और आकार लेता नज़रिया है. यही किसी भी यात्रा का हासिल जमा है.

नीलिमा पाण्डेय

बंद मुट्ठी से वक़्त का रेत की तरह फिसलना यात्रा के दौरान शिद्दत से समझ में आता है. पलक झपकते ही वक़्त यह जा – वह जा. ज़द में ही नहीं आता. अमूमन यात्राएं ऊपरी तौर पर एक-सी दिखती हैं, पर अलग-अलग लोगों के लिए उनके मायने में फर्क़ होते हैं. किसी एक के लिए भी तय की गई हर यात्रा के जुदा मायने भी हो सकते हैं. ख़ास तौर पर मेरे लिए हर तय की गई दूरी में हम अपने भीतर कितना चलते हैं, वह महत्वपूर्ण है. वही यात्रा का मर्म है, उसका नमक है. निरंतरता उसकी खासियत है, जो कदम दर कदम जुड़ती चलती है. मंज़िल को ध्यान में रखकर की गई यात्राएं निहायत ही उबाऊ होती हैं. मकसद मंज़िल नहीं मंज़िल तक ले जाने वाला रास्ता, उस रास्ते को तय करती नज़र और आकार लेता नज़रिया है. यही किसी भी यात्रा का हासिल जमा है. पहुंचना तो है ही, वक़्त-बेवक़्त. दरमियान देखे गए रंग और अपनी बदलती हुई रंगत असल हासिल है. चीजों को देखने का सलीका सिखाती हैं, यात्राएं और अपने भीतर गहरा उतरना भी. ये गहराई यात्रा को रैखिक होने से बचाती है. अन्य विमाओं के जुड़ने के साथ हम ईमानदार होते जाते हैं. अस्त-व्यस्त लदे-फंदे होने के बजाय मुक्त चित्त मंज़िल पर कदम पर कदम रखते हैं. मुक्ति का यह एहसास यात्रा की पूर्णता है और तमाम नई यात्राओं की शुरुआत भी…

अल्मोड़ा से बिन्सर की तरफ़ बढ़ते हुए जब आप डीना पानी की जमीन को छूते हैं ढेर सारे खिले लाल दहकते हुए बुरांश के फूल आप का इस्तक़बाल करते हैं. यकायक पढ़ी हुई वह सारी कहानियां याद आती जाती हैं जिनमें, इश्क़ की रुमानियत बुरांश के इर्दगिर्द बुनी गई थी. ऊपर चढ़ते हुए सड़क धीरे-धीरे संकरी होती जाती है. कुछ उधड़ी हुई भी है आजकल. सड़क का ये संकरापन आपके ख्यालों में खलल तो जरूर पैदा करता है लेकिन आसपास फैली हुई छटा हाथ पकड़कर वापस रुमानियत में खींच ले जाती है. आबादी और आवाजाही कम होने की वजह से चौतरफा फैली हुई ख़ामोशी में सर उठाए पहाड़ सन्नाटा बुनने लगते हैं. निस्तब्धता का ये संगीत रूह को सहलाता चलता है. इसकी लय उस वक़्त थमती है, जब आप बिन्सर पहुंचते हैं. अपने एकांत में ठहरा रुई के फाहे-सा मुलायम एक छोटा-सा हिल स्टेशन है बिन्सर. ख़ूबसूरत होने के साथ-साथ आकर्षक, गरिमामयी, मोहक…

आदतन सच अगर बताओगे

बिन्सर में ठहरने की जो जगह हमने चुनी वहां बिजली की सुविधा नहीं है. सूरज की रोशनी के साथ ही कदम-ताल मिला कर चलना था. मोबाइल और इलेक्ट्रॉनिक गजेट्स में उलझी हुई हमारी दिनचर्या को इस सूचना से तात्कालिक सदमा पहुँचा. हालांकि पहाड़ों पर ऊपर अकसर मोबाइल नेटवर्क नहीं मिलता है और आप इस जंजाल से मुक्त ही रहते हैं. लेकिन बिजली मिलती है. पल भर की अन्यमनस्कता के बाद हम तफ़सील से जानकारी देते रेस्ट हाउस के परिचर पर नज़र जमाते हैं. उसकी आत्मीयता पेशेगत व्यवहारिकता की उपज है या व्यक्तित्व की ख़ासियत कहना मुश्किल है. साफ-सुथरा सलीके से सजा रेस्ट हाउस का स्वागत कक्ष आकर्षित करता है. माहौल  में गर्माहट और आश्वस्ति थी. वक़्त में ठहराव को महसूस किया जा सकता था. सूर्यास्त होने को था. सैलानियों में अस्त होते सूर्य की किरणों में हिमालय की श्रृंखला को सुनहरा देखने की चर्चा थी. उत्सुकतावश हम भी रेस्ट हाउस के टेरेस पर चहलकदमी करते रहे. बादल रुई के फाहों की तरह टुकडों में उड़ रहे थे. उनके और सूरज के बीच एक किस्म की आँख-मिचौली जारी थी. नजर पर जोर देने पर बर्फीले पहाड़ों की कुछ चोटियां धुंधली-सी दिख रही थीं. कुछ सैलानी उत्साह से अलग-अलग हिम शिखरों को उनके नाम से पहचानने की कोशिश कर रहे थे. ज़्यादातर बादलों पर बेहद नाराज़ थे. घिर आये बादलों ने सबकी व्यग्रता बढ़ा दी थी. ‘कुछ दिख नहीं रहा’ की हताशा में जो दिख रहा था, जिसे देखा जा सकता था, उसकी तरफ़ से ज़्यादातर लोगों ने नज़रें फेर रखी थीं. खोया-पाया की मनःस्थिति हावी थी. कुछ वक़्त के लिए एक शोर-सा व्याप्त हो गया. माहौल की मुलायमियत पल भर को खो गई. हमने एक खाली कोना चुना और अस्त होते सूर्य की विपरीत दिशा में नज़रें जमा दीं. प्रकृति अपने पूरे वैभव के साथ फैली हुई थी I अचानक आवाज़ का एक गुबार उठा I आ गया ! आ गया ! सैलानियों की धड़कनें बढ़ाता सूरज बादलों की ओट से झाँक रहा था I निहायत ही मसरूफियत के अंदाज में पल भर रुका I उसकी गेस्ट अपीयरेंस भांप पचासों कैमरे खड़खड़ा उठे I फोटो सेशन के बीच ही सूरज ने विदा ले ली I मायूस गहरी सांसों से वक्त का वो लम्हा ठहर गया I उदास चेहरे कमरों की तरफ लौट चले I

बिन्सर में सीमित टूरिस्ट अट्रैक्शन हैं. हर तरफ़ प्रकृति की किलक और पुलक है. मानवीय हस्तक्षेप कम ही दिखता है. रेस्टहाउस के करीब ही अंग्रेजों के समय बने एक डाक-बंगले की चर्चा थी. सुबह की चाय के बाद हमने उधर जाना तय किया. लगभग एक किलोमीटर के रास्ते में झींगुर, पंडुक और बुरांश हमारे साथ रहे. इंसान एक न दिखा. उम्मीदन रास्ता लुभावना था. पहुँचने पर दूर से ही विवेकानंद की आकृति को धारण किये हुए एक सूचना पट नज़रों से टकराया. विवेकानंद के वहाँ आने की सूचना ने जगह के महत्व और आकर्षण को ऐतिहासिक रूप से बढ़ा दिया. सूचना पट पर दर्ज़ है कि ‘सन 1897 में अपनी दूसरी अल्मोड़ा यात्रा के दौरान विवेकानंद 2-3 दिन यहां ठहरे थे, उसके बाद वे श्यामधुरा को रवाना हुए’. भीतर का पूरा परिवेश रूमानी था. गेट के भीतर दाईं तरफ़ केयरटेकर के रहने की व्यवस्था कुछ कदम आगे बढ़कर किचन कम कैंटीन और ठीक नज़रों के सामने भव्य डाक-बंगला. पश्चिम की तरफ़ एक प्लेटफॉर्म- नुमा टेरेस जहाँ बैठने की व्यवस्था थी. पेड़ के मोटे तनों को गढ़कर प्राकृतिक मेज़ बनाई गई थी. ग़ौर फरमाने पर पाया कि इसी जगह को ‘सनसेट पॉइंट’ कहा गया है. डाक-बंगले में टिके सैलानी वहाँ नाश्ता करने में मशगूल थे. वापसी की सोच ही रहे थे कि बाजू में ‘मील के पत्थर’ जैसा कुछ दिखा. ‘मील का पत्थर होना’ अपने आप में एक खूबसूरत रूपक तो है ही मुझे कुछ ज़्यादा ही फैसीनेट करता है. चलते-चलते हम ठिठक गए. धुंधलाये हुए पत्थर पर क्या लिखा है पढ़ने की कोशिश करने लगे. पत्थर पर दो नाम दर्ज़ हैं. काफड़खान : 14 किमी और बिन्सर  : 0 किमी. यानि कि हम उस सड़क के अंतिम छोर पर खड़े थे जो पहले-पहल लगभग 116 बरस पहले सन 1902 में बनी थी. खैर ! शाम लौटने का इरादा करते हुए हम वापस लौट आए. शरीर को भी ईंधन की जरूरत महसूस हो रही थी. तरोताज़ा हो हमने ज़ीरो पॉइंट का रुख किया…

ज़ीरो पॉइंट तक का सफ़र रोचक रहा. घघुती, टिट, कोयल और तितलियों की संगत में हमने इस सफ़र को तय किया. इस सफ़र को जीवन्त बनाने में हमारे युवा थल नियामक की ख़ास भूमिका रही. भगवत स्वरूप जी हमें जंगल के बीच सकुशल ले जाने की भूमिका का निर्वहन कर रहे थे. चार किलोमीटर घने जंगल से पैदल गुजरने का अनुभव अपने आप में रोमांचकारी था. इससे पहले हम जब भी जंगल से पैदल रूबरू हुए एक-आध किलोमीटर चलकर लौट आए थे. भगवत चिड़ियों, पेड़-पौधों, पत्तियों से हमारी पहचान करवाते आगे बढ़ रहे थे. एक तरफ़ हम पहाड़ी रास्ते से त्रस्त मन्थर गति से चल रहे थे, वहीं भगवत जी झूम-झूम कर उन्मुक्त अंदाज में चले जा रहे थे. उनका झूमता हुआ बेफिक्र अंदाज़ उनके इलाक़ाई होने की गवाही दे रहा था. पीठ पर पिठ्ठू बैग लादे वे मुझे किसी छात्र सरीखे दिख रहे थे. इस विचार के टकराते ही अपनी मास्टरी खुदबुदाहट के चलते हमने फौरन उनकी पढ़ाई-लिखाई का इतिहास-भूगोल जानने की तरफ़ बातचीत का रुख मोड़ा. भगवत कुमाऊँ विश्वविद्यालय के नैनीताल परिसर में एम.ए. के छात्र थे. प्राइवेट पढ़ाई करते हुए गाइड का काम कर अपना जेब-ख़र्च निकाल रहे थे. धौल-छीना गाँव में रहने वाला, प्राइवेट परीक्षा देकर अपनी शिक्षा पूरी करने वाला ये छात्र जिस सलीके से पेश आ रहा था, बेहतर उच्चारण में अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल कर रहा था, आत्मविश्वास और बेफ़िक्री से लबरेज था, उससे हम ख़ासा प्रभावित हुए. जंगल को महसूस करते, गप्पें लड़ाते मन्थर गति से चलते हुए अंततः हम ज़ीरो पॉइंट के मचान तक पहुँच गए. पूरे रास्ते रंग-बिरंगी ख़ूबसूरत तितलियाँ हमें मोहती रहीं. मचान पर चढ़कर हमने इधर-उधर से दिखने वाले नज़ारों की तफ्तीश की. दिन चढ़ आया था. उसमें सुबह वाली मादकता  नहीं थी. फिर भी ऊँचाई से चारों तरफ फैली हुई प्रकृति को देखने का अनुभव नया था…

अभी तक की टहलाई के दौरान हम लगातार किसी प्राचीन स्मारक की तलाश में थे I तमाम नजरें दौड़ायीं पर कुछ हासिल नहीं हुआ I हारकर पूछताछ की I एक मन्दिर का जिक्र मिला I बिनेश्वर महादेव मन्दिर I देवदार के घने जंगलों से घिरा यह मंदिर ‘बिनसर महादेव’ के नाम से भी जाना जाता है. भगवान शिव को समर्पित यह मंदिर हिंदुओं के पवित्र स्थानों में से एक है. यहां साल के जून महीने में महायज्ञ के आयोजन की सूचना है. मंदिर अपनी संरचना में गरुड़-बैजनाथ के मंदिर जैसा दिखता है. आकार में यह गरुड़ के मंदिरों से काफी छोटा है. यहाँ हमें दो गर्भ गृह मिले. एक में शिवलिंग और दूसरे में गौरा-पार्वती स्थापित हैं. जिस छोटे से गेट से हमने मंदिर में प्रवेश लिया उसके दाईं ओर चारदीवारी से लगाकर शनि देवता की प्रतिमा रखी थी. दिन शनिवार का था और पुजारी जी बार-बार तेल चढ़ा रहे थे. इस वजह से हमारा ध्यान उस तरफ़ गया. मंदिर या आसपास से कोई अभिलेख हमें नहीं दिखा. पुजारी जी ने इस संबंध में अनभिज्ञता जताई. इस वजह से मंदिर की प्राचीनता से संबंधित कोई पुख्ता जानकारी नहीं मिली. राजस्व विभाग के अभिलेखों में मंदिर के दर्ज़ होने की सूचना है. पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का कोई सूचना पट न मिलने से यह स्पष्ट है कि मंदिर पुरातत्व विभाग की निगहबानी  में नहीं है. उपलब्ध सूचनाओं में यह स्थान एक ऐतिहासिक पुरास्थल है. इस मंदिर को 12 वीं शताब्दी का उत्तराखंड के चंद शासकों के समय निर्मित माना जाता है.

बिनेश्वर मंदिर के पुजारी हरीश गिरी जी ख़ुश दिल इंसान थे. मंदिर पहुँचने पर उन्होंने खुले दिल से हमारा स्वागत किया और इत्मीनान से बैठकर बातचीत की. पता चला कि मंदिर से उनका जुड़ाव काफी पुराना है. बीच में वो कुछ समय यहाँ नहीं रहे किन्तु पिछले ढाई वर्षों से मंदिर की देख-रेख कर रहे हैं. वह मूल रूप से नैनीताल के रहने वाले हैं. मंदिर का साफ सुथरा प्रांगण यह बता रहा था कि भक्तों की आवाजाही यहाँ कम है. हरीश जी ने इस बात की पुष्टि की और चढ़ावा कम आने की वजह से कुछ निराश भी दिखे. मंदिर की प्राचीनता को लेकर वह खासे आश्वस्त थे. यद्दपि कोई प्रामाणिक संदर्भ उनके पास नहीं था. मंदिर की बनावट से संकेत मिल रहा था कि वह प्राचीन है, एक शिवाले की तरह उसकी स्थापना की गई होगी. प्रायः प्राचीन मंदिर पूजा-पाठ से बरी होते हैं. उनके एकांत में एक लयबद्ध संगीत बहता है. उनकी ख़ामोश गुनगुनाहट ही मुझे सर्वाधिक आकर्षित करने वाला पक्ष लगता है. ऐतिहासिकता उनके आकर्षण को बढ़ाती है. कुमाऊँ के प्राचीन मंदिरों में अभी पूजा-पाठ जारी है. सिर्फ़ कोसी-कटारमल में गर्भगृह में जाने की मनाही है. पहाड़ी पर स्थित यह मंदिर तिलिस्मी आकर्षण रखता है. बैजनाथ और जागेश्वर दोनों स्थानों पर मंदिरों में पूजा और धार्मिक कर्मकांड अभी जारी है. मंदिर वास्तु  के दृष्टिकोण से ये दोनों मंदिर समूह उत्कृष्ट हैं. भौगोलिक परिवेश इन्हें और  ख़ूबसूरत बनाता है. भक्तों की भीड़ और कर्मकांडों के शोरगुल में इनकी ख़ामोश गुनगुनाहट दब जाती है. सुबह और देर शाम के वक़्त ही इस गुनगुन को सुना जा सकता है. बिनेश्वर महादेव का मंदिर बैजनाथ और जागेश्वर के मंदिरों के सामने बेहद छोटा है. बावजूद इसके अपनी रमणीयता में विलक्षण दिखता है. यहाँ आप घण्टों गुजार सकते हैं. ख़ुशदिल पुजारी हरीश जी की आत्मीयता और विनम्र व्यवहार मंदिर और माहौल की ख़ूबसूरती में चार चांद लगा रहे थे. उन्होंने खुशी से तस्वीरें खिंचवाईं. हमसे वादा लिया कि हम दुबारा फ़िर आएंगे. चलते वक़्त हमें नैर का एक औषधीय महत्त्व वाला खुशबूदार पत्ता दिया. कम वक़्त और खड़ी चढ़ाई के आतंक में हम अधिक देर न ठहर सके. लेकिन उस जगह की मनोहारी छवि अपनी नज़रों में जरूर कैद कर लाए.

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बिन्सर से रुखसती का वक़्त दस्तक देने लगा था I वापसी से पहले आखिरी शाम बिन्सर में हमें एक लाज़वाब सूर्यास्त देखने को मिला. बेहद नरम-सा. उसे देखने के लिए हम डाक बँगले के सनसेट पॉइंट पर जमा थे. घने बादल आसमान को मुस्तैदी से कुछ इस अंदाज़ में घेरे हुए थे कि कुछ हो जाए सूरज को झांकने न देंगे. जब हम सनसेट पॉइंट की तरफ बढ़ रहे थे, रास्ते में हमें निराश भाव से लौटते हुए कई सैलानी मिले. दरअसल वो बादलों के चकमे और अपनी बेसब्री का शिकार थे. मौसम विभाग ने सूर्यास्त का जो समय तय किया था, वह अभी कुछ दूर था. सनसेट पॉइंट पर ओस गिरने जैसा घने कुहासे का माहौल मिला. टकटकी बांधे हम पश्चिम का रुख किए बैठे थे. हमारे पीछे डाक बँगले के बरामदे में कुछ बुजुर्ग सैलानी भी प्रतीक्षारत दिखे. ठण्ड काफी थी. तेज हवा बर्दाश्त न कर पाने की वजह से धीरे-धीरे चौतरफ़ा वीरानगी फैल गई.

सैलानियों की आवाजाही, बादल, सूरज और शाम घिरने की चर्चा के बीच अचानक हमारी नज़र जमीन की तरफ गई और हमने चिहुँक कर पैर पीछे खींच लिए. दिल की आकृति मिट्टी में अंगुली से खींच उसके भीतर ‘SORRY’ लिखा था. मेरे चौंकने से साथियों का ध्यान भी उस तरफ़ गया. सबने इस एहतियात से अपने कदम समेटे जैसे कोई नरम मुलायम चीज कदमों के नीचे आते-आते बची. हमने संजीदा नज़रों से एक दूसरे को देखा, मुस्कराए और कोई पैर न डाले इसके लिए एक दूसरे को चेताया और फ़िर ख़ुद में कहीं खो गए. यकीनन हम सबके स्मृति पटल पर अपनी कोई गहरी याद उभर आई थी.

अचानक आकाश लाल होने लगा. धीमे-धीमे बादलों की ओट से इठलाता मुस्कराता सूरज इतराया. देखते-देखते पूरा आकाश सिंदूरी हो गया. उफ ! क्या रंग था. गज़ब की खूबसूरती थी सूरज के अंदाज़ में. कुछ देर के लिए सब कुछ थम गया. विस्मृत ! तस्वीर लेना भी याद न रहा. पल भर ठहर कर सूरज ने विदा का उपक्रम किया. कतई अच्छा न लगा उसका यूँ जाना. पर उसे जाना ही था. हम ठगे से उसे देखते रहे. मोहक क्षणों की स्मृतियाँ हकीकत से अधिक ख़ूबसूरत होती हैं. कुछ देर मंत्रमुग्ध ठिठके रहने के बाद हम वापस अपनी दुनिया में लौट आये. इससे पहले की शाम रात से जा मिले हमने रेस्ट हाउस की दिशा में कदम बढ़ाए. जंगल में इतना एहतियात जरूरी है.

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नीलिमा पाण्डेय, असोसिएट प्रोफेसर

अध्यक्ष, प्राचीन इतिहास एवं पुरातत्व विभाग

जे. एन. पी. जी. कालेज, लखनऊ विश्वविद्यालय

सम्पर्क : neelimapandey22@joshiozgmail-com

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