सुधांशु गुप्त
हम चारों तरफ से अच्छी, बुरी या औसत चीजों से घिरे रहते हैं। चीज़ें अच्छी होती हैं, बुरी होती हैं या औसत होती है। यब बात लोगों पर, उत्पादों पर और विभिन्न कलाओं पर भी लागू होती है। अगर हम ग़ौर से देखें तो औसत ही अधिक संख्या में होता है। लोग भी, उत्पाद भी और कलाएं भी। इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि औसत को पसंद करने वाले भी ख़ूब होते हैं।
अगर कोई सर्वे कराया जाए तो आंकड़े औसत को ही श्रेष्ठ साबित करेंगे। इसकी वजह है कि औसत को चाहने और पसंद करने वाले हमेशा अधिक होते हैं। इसलिए उनकी वकालत करने वाले भी, अच्छी चीजों की वकालत करने वालों की तुलना में हमेशा ज्यादा होंगे। सवाल यह उठता है कि किसी चीज़ को औसत कैसे माना जाए! ख़ासकर उस स्थिति में जब उसे पसंद करने वालों की संख्या काफ़ी हो। और औसत किसे कहा जाना चाहिए!
औसत का बाज़ार से सीधा संबंध है। कुछ भी जो बाज़ार की जरूरत के मद्देनज़र तैयार किया जा रहा है, वही औसत है। चाहे वह साहित्य हो, संगीत हो, कला हो, कविता हो या फिर कोई उत्पाद ही क्यों ना हो। जब आप बाज़ार की जरूरत को पूरा करेंगे तो बाज़ार आपको हाथों-हाथ लेगा। बाज़ार ही उसके प्रचार-प्रसार का ठेका भी लेगा, क्योंकि उसे अपना उत्पाद बेचना है। ठीक उसी तरह जिस तरह कोलगेट के बारे में कभी यह विज्ञापन किया जाता था कि इसे लाखों लोग इस्तेमाल करते हैं। उसे खरीदने वाला यही सोचता कि जिसे लाखों लोग खरीद रहे हैं, वह खराब कैसे हो सकता है। इसी तर्ज़ पर कोलगेट बिकता चला गया।
अब उत्पादों से इतर भी यही तर्क इस्तेमाल हो रहा है। किसी भी किताब के बारे में कहा जा रहा है-कहा जा सकता है कि उसे हजारों-लाखों लोग पसंद कर रहे हैं, उसकी रैंकिंग नंबर वन पर पहुंच गई है। आपके पास इन तथ्यों की हक़ीकत जानने का कोई तार्किक तरीका नहीं होता। लिहाजा आपको इस पर यकीन करना पड़ता है। आप मान लेते हैं वह सर्वश्रेष्ठ किताब है। उस किताब के पढ़ने वाले (या ना पढ़ने वाले) भी उसे ही श्रेष्ठ साबित करने की दौड़ में लग जाते हैं। परिणाम यह होता है कि औसत साहित्य और तमाम दूसरी कलाएं समाज में छा जाती हैं। एक तरह से हम यह साबित कर देते हैं कि ‘औसत ही बेस्ट’ है। इसलिए बेस्ट है क्योंकि लोग उसे खरीद रहे हैं, पढ़ रहे हैं और पसंद कर रहे हैं। कोई भी इन तथ्यों की जांच नहीं करता और शायद इसकी जांच का उसके पास कोई उपाय नहीं होता।
औसत का एक और लाभ है। अगर आप औसत से थोड़े से भी बेहतर हैं, और दोनों के बीच तुलना होती है तो आप हमेशा ‘बेस्ट’ पाए जाएंगे। मांग और आपूर्ति का नियम यहां भी पूरी तरह लागू होता है। बाज़ार से मांग आती है और हम उस मांग को पूरा करने में जुट जाते हैं। मिसाल के तौर पर वेलेंटाइन, कोरोना, किसान आंदोलन, महिला दिवस या इसी तरह के अन्य दिवस या आंदोलनों का भी अपना बाज़ार है। इसी बाज़ार से यह मांग आती है कि इन पर लिखा जाए। यह अकारण या अनायास नहीं है कि आपको चारों तरफ तय दिनों के अनुरूप लेखन दिखाई पड़ेगा।
और जब भी आप बाज़ार की जरूरत पूरी करेंगे तो आपका सफल होना सुनिश्चित होगा। आज के समाज में यही हो रहा है। डिजीटल मीडिया पर भी यही चीजें ट्रेंड कर रही हैं। जाहिर है इसका अर्थ यही हुआ कि हम सब औसत के महत्व को जाने-अनजाने स्वीकार कर रहे हैं।