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कुरुथी कमाल का सिनेमा है क्योंकि…

Vivek by Vivek
August 29, 2021
in Other
Reading Time: 1 mins read
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Kuruthi movie review
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इसलिए यदि किसी फिल्म को मैं गजब सिनेमा बताता हूं, तो उसे मेरे मित्र शाहनवाज द्वारा “अच्छी नियत से बनाई गई बुरी फिल्म” बताया जाना बहुत सामान्य बात है. शाहनवाज जिन वजहों से फिल्म को बुरी बता रहे हैं, वे उनकी जगह से नजर आ रही हैं, लिहाजा पूरी तरह जायज हैं और मैं उन्हें सही या गलत नहीं कह सकता. मैं ये बता सकता हूं कि मेरे कोण से कुरुथी क्यों एक अच्छा सिनेमा नजर आ रही है.

वैधानिक चेतावनी, एकः फिल्म कुरुथी पर यह लेख फेसबुक पर एक मित्र की टिप्पणी से निकला है. उस पोस्ट का लिंक आखिर में है.

वैधानिक चेतावनी, दोः इस लेख में कई स्पॉयलर्स हैं. पर मैं दावा करता हूं कि वे स्पॉयलर्स फिल्म की भव्यता को स्पॉयल नहीं कर पाएंगे.

मुझ तक कुरुथी…

किसी भी कलाकृति को, फिर चाहे वह फिल्म हो या पेंटिंग, हम अपनी जगह से, अपने कोण से ही देखते हैं. उसके सारे गुण-अवगुण हमें हमारे अनुभवों के आधार पर नजर आते हैं. इसीलिए जिस फिल्म को कुछ लोग महान बताते हैं, उसे मेरे प्रिय फिल्म समीक्षक चंद्रमोहन शर्मा के शब्दों में, कुत्ता नहीं पूछता.

इसलिए यदि किसी फिल्म को मैं गजब सिनेमा बताता हूं, तो उसे मेरे मित्र शाहनवाज द्वारा “अच्छी नियत से बनाई गई बुरी फिल्म” बताया जाना बहुत सामान्य बात है. शाहनवाज जिन वजहों से फिल्म को बुरी बता रहे हैं, वे उनकी जगह से नजर आ रही हैं, लिहाजा पूरी तरह जायज हैं और मैं उन्हें सही या गलत नहीं कह सकता. मैं ये बता सकता हूं कि मेरे कोण से कुरुथी क्यों एक अच्छा सिनेमा नजर आ रही है.

मैं इस बात को लेकर उलझन में रहा कि कुरुथी का प्रोटैगनिस्ट कौन है. इब्राहिम, जो सही और गलत का फैसला नहीं कर पा रहा है और आखिर तक उलझन में रहता है? या फिर लाइक, जिसे अपना मकसद एकदम साफ दिख रहा है? पर अपने मकसद को लेकर साफ तो विष्णु भी है. तो क्या कुरुथी उसकी कहानी है?

मनु वॉरियर (डाइरेक्टर) और अनीश पल्लयल (लेखक) ने किसकी कहानी कहनी चाही है, यह सवाल उनसे भी पूछा जाना चाहिए, लेकिन खुद एक कहानीकार होने के नाते जब मैं कुरुथी को करीब से और फिर एक फिल्मकार-दर्शक होने के नाते दूर से देखता हूं, तो मुझे यह कहानी इनमें से किसी की नहीं लगती. सुमा की भी नहीं, जो मेरा दूसरा प्रिय पात्र है.

मेरे लिए, कुरुथी कहानी है मूसा खादर की. एक किरदार के तौर पर उसके ग्राफ में हम गजब का कर्व देखते हैं. पेशाब करने तक से लाचार एक खूसट बूढ़ा आखिर में जब जीप ड्राइव करते हुए विष्णु को कुचलने के बजाय पेड़ में भिड़ा देने का फैसला करता है, तब कहानी अपनी उरूज पर पहुंचती है.

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कुरुथी को मैं मूसा की नजर से ही देखता हूं जो हम सबके अंदर घर कर चुकी सांप्रदायिकता का प्रतीक है. हम सब अपने इर्द-गिर्द घट रहीं घटनाओं को नजरअंदाज करने के अंदाज में देखे जा रहे हैं. ले-देकर हम सबका मकसद बस ये हो गया है कि पेशाब की थैली खाली होती रहे हो और नौकरियां वक्त पर खाना खिलाती रहें. यह हम सबके सांप्रदायिक हो जाने का की संकेत है कि रूसल जैसे अपने ही बच्चों को कट्टर होते देखने पर सिवाय वॉट्सऐप पर बदले के फॉर्वर्ड भेजने के, हम कुछ नहीं करते.

लेकिन मूसा करता है. एक वक्त आता है जब मूसा फैसला करता है कि अब मैं तय करूंगा. उसका वो सीन… अपनी पेशाब की थैली उतारना, नई कमीज पहनना, बेल्ट बांधना… अद्भुत दृश्य है. वो हम सबका कथारसिस भी है, शायद. और, हम सबकी अकर्मण्यता पर सवाल भी.

फिर यह कहानी, सुमा की भी है. (क्या यह संयोग है कि मूसा और सूमा समान अक्षरों और समान मात्राओं से बने नाम हैं? मुझे लगता है अनीश ने ये नाम जान बूझ कर ऐसे रखे होंगे.) मूसा की तरह ही सुमा का कैरक्टर ग्राफ अद्भुत है. इबरू के लिए कलमा पढ़ने तक को तैयार सुमा जब धर्म की खातिर उसी पर पिस्टल तान देती है, तब सिहरन होती है.

उसके भीतर पल रही कट्टरता का इस तरह सामने आना और उसके प्रेम को फूंक देना मुझे हमारे रिश्तेदारों, माता-पिताओं, भाई-बहनों के साथ 2014 के बाद बढ़े मन-मुटाव का अद्भुत प्रतीक लगता है. हम सबके साथ यही तो हुआ है ना. जिस कट्टरता को हम ढके बैठे थे, वे सारे चोले हमने उतार फेंके हैं. वॉट्सऐप ग्रुपों में, फेसबुक मेसेंजर में अपनों को ही बैन और ब्लॉक करते हम क्या सुमा नहीं हैं? क्या धर्मांधता ने, नफरतों ने हमारे अपनेपन, हमारी दोस्तियों को फूंक कर राख नहीं कर दिया है?

फिल्म को जब मैं इस कोण से देख रहा होता हूं तो शाहनवाज की वे आपत्तियां नहीं देख पाता कि मुस्लिम किरदार ज्यादा खूंखार दिखाया गया है जबकि हिंदू किरदार को बेचारा. मेरी नजर से लाइक अगर खूंखार है तो उसकी तुलना मैं सुमा की प्रतिबद्ध कट्टरता से करता हूं या फिर मूसा की मानवीयता से. विष्णु तो मुझे ट्वटिर के उन ट्रोल सा लगता है जो आगा-पीछा देखे बिना स्वरा भास्कर या राणा अयूब पर पगलाए रहते हैं. उसकी मूर्खतापूर्ण बेचारगी की तुलना मैं रसूल के कन्फ्यूजन से करता हूं. शायद अनीश भी ऐसा ही सोचता हो, इसलिए उसने पुल पर उन दोनों को आमने-सामने छोड़ा है.

पढ़िएः फेसबुक पोस्ट, जहां से यह पोस्ट निकली.

कुरुथी प्राइम पर उपलब्ध है.

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Vivek

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